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________________ अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः ५८१ अन्वय:-प्रश्नाख्यानयोर्वाक्यस्यानन्त्यस्यान्त्यस्यापि च पदस्य टे: प्लुत: स्वरित:। अर्थ:-प्रश्ने आख्याने चार्थे वर्तमानस्य वाक्यस्यानन्त्यस्यान्त्यस्यापि च पदस्य टे: प्लुतो भवति, स च स्वरितो भवति । उदा०-(प्रश्न:) अगम३: पूर्वाश्न् ग्रामाइन् अग्निभूता३इ/पटा३उ। (आख्यानम्) अगम३म् पूर्वा३न् ग्रामा३न् भोः। आर्यभाषा: अर्थ-(प्रश्नाख्यानयोः) प्रश्न और आख्यान-उत्तर अर्थ में विद्यमान (अनन्त्यस्य) अनन्त्य और अन्त्य (पदस्य) पद के (ट:) टि-भाग को (अपि) भी (प्लुत:) प्लुत होता है और वह (स्वरित:) स्वरित होता है। उदा०-(प्रश्न) अगम३: पूर्वाश्न् ग्रामाइन् अग्निभूता३इ/पटाउ। हे अग्निभूते/पटो क्या तू पूर्वदिशा के ग्रामों में गया था ? (आख्यानम्) उत्तर-अगम३म् पूर्वाइन् ग्रामाइन् भोः । भाई ! मैं पूर्वदिशा के ग्रामों में गया था। यहां प्रश्नवाक्य में अन्तिम पद के टि-भाग को पक्ष में 'अनुदात्तं प्रश्नान्ताभिपूजितयोः' (८।२।१००) से अनुदात्त प्लुत भी होता है-अगम३ः पूर्वाश्न् ग्रामा३न् अग्निभूता३इ/पटा३उ। . प्लुतविधिमाह (२५) प्लुतावैच इदुतौ ।१०६। प०वि०-प्लुतौ १।१ ऐच: ६ १ इदुतौ १।२। स०-इच्च उच्च तौ-इदुतौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अर्थ:-'दूराद्धृते च' (८।२।८४) इत्येवमादिषु यः प्लुतो विहितस्तत्रैच: प्लुतप्रसङ्गे इकारोकारौ प्लुतौ भवतः। उदा०-(ए) ऐ३तिकानयन ! (औ) औ३पमन्यव ! आर्यभाषा: अर्थ-दूराछूते च' (८।२।८४) इत्यादि सूत्रों से जो प्लुत-विधान किया गया है वहां (एच:) ऐच् (ए-औ) वर्ण को प्लुत के प्रसङ्ग में (इदुतौ) इकार और उकार को (प्लुतौ) प्लुत होता है। उदा०-(ए) ऐश्तिकायन ! (औ) औ३पमन्यव ! हे ऐतिकायन ! हे औपमन्यव ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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