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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः स०-अग्निमीन्धे इति अग्नीत् ऋत्विविशेषः । अग्नीध: प्रेषणमिति अग्नीत्प्रेषणम्, तस्मिन्-अग्नीत्प्रेषणे (षष्ठीतत्पुरुषः)। प्रेषणम्=नियोजनम्।
अनु०-पदस्य, प्लुत:, उदात्त:, यज्ञकर्मणि, आदेरिति चानुवर्तते। अन्वय:-यज्ञकर्मणि अग्नीत्प्रेषणे पदस्यादे: परस्य च प्लुत उदात्त: ।
अर्थ:-यज्ञकर्मणि अग्नीत्प्रेषणेऽर्थे वर्तमानस्य पदस्यादेस्तत्परस्य चाऽच: प्लुतो भवति, स चोदात्तो भवति ।
उदाo-आ३श्रा३वय। ओ३श्रा३वय।
आर्यभाषा: अर्थ-(यज्ञकर्माण) यज्ञ-कर्म में (आग्नीत्प्रेषणे) आनीत् नामक ऋत्विक् के यज्ञ-कर्म में नियुक्त करने अर्थ में वर्तमान (पदस्य) पद के (आदे:) आदिम अच् को (च) और उससे (परस्य) परवर्ती अच् को (प्लुत:) प्लुत होता है और वह (उदात्त:) उदात्त होता है।
उदा०-आ३श्राश्वय । ओ३श्रावय।
विशेष: अग्नीध् (ऋत्विक) कचरे के स्थान या उत्कर के समीप स्फ्य नामक तलवार लेकर बैठता था। उसे अध्वर्यु द्वारा जो आज्ञा दी जाती उसे अग्नीत्प्रेषण या आश्रवण कहते थे। उसका यह रूप था-आ३श्राश्वय, कुछ शाखाओं में इसे ओ३श्राश्वय कहा गया है। इस प्रैष का अभिप्राय था-कृपा करके देवता तक यज्ञ की सूचना पहुंचा दें कि सब ठीक-ठाक है (पाणिनि कालीन भारतवर्ष पृ० ३६८)।
__ अग्नीत् ऋत्विक् ब्रह्मा का सहायक होता है और असुरों से यज्ञ की रक्षा करता है। प्लुतः (उदात्तः)
(१२) विभाषा पृष्टप्रतिवचने हेः ।६३। प०वि०-विभाषा ११ पृष्टप्रतिवचने ७१ हे: ६।१ ।
स०-पृष्टस्य प्रतिवचनमिति पृष्टप्रतिवचनम्, तस्मिन्-पृष्टप्रतिवचने (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-पदस्य, प्लुत:, उदात्त: इति चानुवर्तते। अन्वय:-पृष्टप्रतिवचने हे: पदस्य विभाषा प्लुत उदात्त:।
अर्थ:-पृष्टस्य प्रतिवचने-प्रत्युत्तरेऽर्थे वर्तमानस्य हि-पदस्य विकल्पेन प्लुतो भवति, स चोदात्तो भवति ।
उदा०-अकार्षी: कटं देवदत्त ? अकार्ष हि३, अकार्ष हि। अलावी: केदारं देवदत्त ? अलाविषं हि३, अलाविषं हि।
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