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________________ ५६५ अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः प्लुतः (उदात्तः) (३) दूरद्धृते चा८४| प०वि०-दूरात् ५।१ हूते ७१ च अव्ययपदम्। अनु०-वाक्यस्य, टे:, प्लुत:, उदात्त इति चानुवर्तते। अन्वय:-दूराद् धूते च वाक्यस्य टे: प्लुत उदात्त: । अर्थ:-दूराद् हूते-आहाने च यद् वाक्यं वर्तते, तस्य टे: प्लुतो भवति, स चोदात्तो भवति। उदा०-आगच्छ भो माणवक देवदत्त३। आगच्छ भो माणवक यज्ञदत्त३ । आर्यभाषा: अर्थ-(दूरात्) दूर से (हूते) आह्वान करने में (च) भी जो (वाक्यस्य) वाक्य है, उसके (ट:) टि-भाग को (प्लुत:) प्लुत होता है और वह (उदात्त:) उदात्त होता है। उदा०-आगच्छ भो माणवक देवदत्त३ । हे बालक देवदत्त तू आ जा। आगच्छ भो माणवक यज्ञदत्त३ । हे बालक यज्ञदत्त तू आ जा। प्लुतः (उदात्तः) (४) हैहेप्रयोगे हैहयोः।८५। प०वि०-है-हेप्रयोगे ७१ है-हयो: ६।२।। स०-हैश्च हेश्च तौ हैहयौ, तयोः प्रयोग इति हैहेप्रयोग:, तस्मिन्हैहेप्रयोगे (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितषष्ठीतत्पुरुषः)। हैश्च हेश्च तौ हैहयौ, तयो: हैहयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-वाक्यस्य, प्लुत:, उदात्त:, दूरात्, हूते इति चानुवर्तते। अन्वय:-दूराद्धृते हैहेप्रयोगे वाक्यस्य हैहयो: प्लुत उदात्त: । अर्थ:-दूराद्धृते आह्वाने हैहेप्रयोगे यद् वाक्यं वर्तते, तत्र हैहयोरेव प्लुतो भवति, स चोदात्तो भवति। उदा०-(है) है३ देवदत्त ! देवदत्त है३। (ह) हे३ देवदत्त ! देवदत्त हे३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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