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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) विद्वद्भ्याम् । विद्वस्+भ्याम् । विद्वद्+भ्याम्। विद्वद्भ्याम् ।
यहां 'विद ज्ञाने (अदा०प०) धातु से शतृ' प्रत्यय और 'विदे: शतुर्वसुः' (७।१।३६) से शतृ' को वसु' आदेश होता है। विद्वस्' शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से 'भ्याम्' प्रत्यय है। स्वादिष्वसर्वनामस्थाने (१।४।१७) से विद्वस्' की पद-संज्ञा है। इस सूत्र से सकारान्त विद्वस्’ पद के अन्त्य सकार को दकारादेश होता है। भिस्' प्रत्यय में-विद्वद्भिः।
यहां ससजुषो रुः' (८।२।६६) से 'स' पद की अनुवृत्ति की जाती है उसका सम्बन्ध केवल वसु' के साथ है, अर्थात् सकारान्त वसु-प्रत्ययान्त पद को दकारादेश होता है। अत: यहां दकारादेश नहीं है-विद्वान् ।
(२) उखास्रद्भ्याम् । यहां उखा-उपपद 'लंसु अवलंसने (भ्वा०आ०) धातु से क्विप् च (३।२।७६) से 'क्विप्' प्रत्यय है। इसका सर्वहारी लोप होता है। 'अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से 'स्रंस' के अनुनासिक (न) का लोप होता है। उखास्रस्+भ्याम्-इस स्थिति में इस सूत्र से स्रस्' के अन्त्य सकार को दकारादेश होता है। 'भिस्' प्रत्यय में-उखात्रद्भिः ।
(३) पर्णध्वद्भ्याम् । यहां पर्ण-उपपद 'ध्वसु अवलंसने (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत्। भिस्' प्रत्यय में-पर्णध्वद्भिः ।
(४) अनडुद्भ्याम् । 'अनडुह' शब्द से पूर्ववत् । भिस्' प्रत्यय में-अनडुद्भिः । द-आदेश:
(८) तिप्यनस्तेः १७३। प०वि०-तिपि ७१ अनस्ते: ६।१। स०-न अस्तिरिति अनस्ति:, तस्य-अनस्ते: (नञ्तत्पुरुष:)। अनु०-पदस्य, स:, द इति चानुवर्तते। अन्वय:-अनस्ते: स: पदस्य तिपि दः ।
अर्थ:-अस्तिवर्जितस्य सकारान्तस्य पदस्य तिपि प्रत्यये परतो दकारादेशो भवति।
उदा०-(चकास्) अचकाद् भवान्। (शास्) अन्वशाद् भवान्।
आर्यभाषा: अर्थ-(अनस्ते:) अस्ति से भिन्न (स:) सकारान्त (पदस्य) पद के अन्त्य वर्ण को (तिपि) तिप् प्रत्यय परे होने पर (द:) दकारादेश होता है।
उदा०-(चकास) अचकाद् भवान् । आप प्रकाशित हुये, चमके। (शास) अन्वशाद् भवान् । आपने शिक्षा की।
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