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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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सिद्धि-अचकात्। यहां 'चकासृ दीप्तों' (अदा०प०) धातु से 'अनद्यतने लङ् (३ ।२1१११) से 'लङ्' प्रत्यय है । 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश है। 'कतीर शर्पा (३/१/६८ ) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय और इसका 'अदितिभ्यः शप' (२/४ /७२ ) से लुक् होता है । 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात०' (६/१/६७) से युक्त त् ( तिप्) का लोप होता है। अट्+चकास् - इस स्थिति में इस सूत्र से सकारान्त 'अकास्' के अन्त्य सकार को दकारादेश होता है । 'वाऽवसाने' (८/४/५६ ) से दकार चर् तकार होता है। अनु-उपसर्गपूर्वक 'शासु अनुशिष्टों (अदा०प०) धातु से - अन्वशात् । रु आदेशविकल्प:
(६) सिपि धातो रुर्वा १७४ |
प०वि०-सिपि ७।१ धातो: ६ । १ रु: १ । १ वा अव्ययपदम् । अनु० - पदस्य, स इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - सः पदस्य धातो: सिपि वा रुः ।
अर्थ:-सकारान्तस्य पदस्य धातो: सिपि प्रत्यये परतो विकल्पेन रुरादेशो भवति, पक्षे च दकारादेशो भवति ।
उदा०- ( चकास् ) अचकास्त्वम्, अचकात् त्वम् । ( शास् ) अन्वशास्त्वम्, अन्वशात् त्वम् ।
आर्यभाषा: अर्थ- (सः) सकारान्त ( पदस्य) पद के (धातोः) धातु के अन्त्य वर्ण को (सिपि) सिप् प्रत्यय परे होने पर (वा) विकल्प से (रु.) रु आदेश होता है और पक्ष में दकारादेश होता है।
उदा०-(चकास्) अचकास्त्वम्, अचकात् त्वम् । तू प्रकाशित हुआ, चमका। (शास्) अन्वशास्त्वम्, अन्वशात् त्वम् । तूने शिक्षा की ।
सिद्धि-अचका:। यहां 'चकासृ दीप्तौं' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लङ्' प्रत्यय है । 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'सिप' आदेश है । पूर्ववत् 'शप्' विकरण- प्रत्यय और उसका लुक् होता है । 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् ० ' ( ६ |१/६७) से अपृक्त स् (सिप्) का लोप होता है। अट् चकास्+०। इस स्थिति में इस सूत्र से सकारान्त पद चकास् धातु के पद को 'सिप्' प्रत्यय परे हेने पर ह' आदेश होता है । 'सुप्तिङन्तं पदम्' (१।४।१४) से पद संज्ञा है । 'खरवसानयोर्विसर्जनीय:' ( ८ | ३ | १५ ) से 'रु' के रेफ को अवसानलक्षण विसर्जनीय आदेश होता है। 'अचकास्त्वम्' यहां 'विसर्जनीयस्य स:' ( ८1३1३४) से विसर्जनीय को सकारादेश होता है। विकल्प-पक्ष में दकारादेश हैअचकात् त्वम् । अनु-उपसर्गपूर्वक 'शासु अनुशिष्टों' (अदा०प०) धातु से - अन्वशास्त्वम्, अन्वशात् त्वम् ।
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