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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः यहां 'अहन्' शब्द से 'स्वौजस०' (४।१।२) से 'भ्याम्' प्रत्यय है। स्वादिष्वसर्वनामस्थाने (१।४।१७) की अहन्' की पद संज्ञा है। इस सूत्र से 'अहन्' पद के अन्त्य वर्ण नकार के स्थान में रु आदेश होता है। हशि च' (६।१।१११) से रु के रेफ को उकारादेश और 'आद्गुणः' (६।१।८५) से गुणरूप (अ+उ=ओ) एकादेश है। भिस्-प्रत्यय में-अहोभिः ।
यहां नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२७) से नकार का लोप प्राप्त था, अत: यह रु-आदेश का विधान किया गया है। र-आदेशः
(४) रोऽसुपि।६६। प०वि०-र: ११ असुपि ७१। स०-न सुप् इति असुप्, तस्मिन्-असुपि (नञ्तत्पुरुषः)। अनु०-पदस्य, अहनिति चानुवर्तते। अन्वय:-अहनिति पदस्यासुपि रः। अर्थ:-अहनित्येतस्य पदस्याऽसुपि परतो रेफादेशो भवति । उदा०- (अहन्) अहर्ददाति। अहर्भुङ्क्ते।
आर्यभाषा: अर्थ- (अहन्) अहन् इस (पदस्य) पद के अन्त्य वर्ण के स्थान पर (र:) रेफादेश होता है।
उदा०-(अहन्) अहर्ददाति । वह दिन भर दान करता है। अहर्भुङ्क्ते । वह दिन भर खाता-पीता है।
सिद्धि-अहर्ददाति । अहन्+अम्। अहन्+-० । अहर्+ददाति अहर्ददाति ।
यहां 'अहन्' शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से 'अम्' प्रत्यय है। स्वमोर्नपुंसकात (७।२।२३) से 'अम्’ का लुक् होता है। सुप्तिङन्तं पदम् (१।४।१४) से इसकी पद संज्ञा है। इस सूत्र से 'अहन्' पद को सुप्' प्रत्यय परे न होने पर रेफादेश होता है। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे (२।३।५) से अत्यन्त संयोग में द्वितीया विभक्ति है। उभयथा (रु:+र:)
(५) अम्नरूधरवरित्युभयथा छन्दसि ।७०।
प०वि०-अम्नर्-ऊधर्-अव: ६।१ (लुप्तषष्ठीकं पदम्), इति अव्ययपदम्, उभयथा अव्ययपदम्, छन्दसि ७।१।
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