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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा० - देवा अदुह्र (मै०सं० ४ । २ । १३) । गन्धर्वाप्सरसोऽअदुह्र ( मै०सं० ४ । २ । १३) । 'अदुहत' इति प्राप्ते । द्रुह्रामश्विभ्यां पयोऽअघ्न्येयम् (ऋ० १।१६४।२७) 'दुग्धाम्' इति प्राप्ते । दक्षिणतः पुमान् स्त्रियमुपशये ( कां०सं० २०१६) 'शेते' इति प्राप्ते । ४० आर्यभाषाः अर्थ- (छन्दसि ) वेदविषय में (अङ्गात्) अङ्ग से परे (आत्मनेषु) आत्मनेपदों में विद्यमान (तः) त ( प्रत्ययस्य) प्रत्यय का ( लोप: ) लोप होता है। उदा०- - देवा अदुह (मै०सं० ४ । २ । १३) । गन्धर्वाप्सरसोऽअदुह (मै०सं० ४।२।१३) । 'अदुहत' यह रूप प्राप्त था। द्रुहामश्विभ्यां पयोऽअध्येयम् (ऋ० १।१६४।२७) दुग्धाम्' यह रूप प्राप्त था। दक्षिणतः पुमान् स्त्रियमुपशये (कां०सं० २०१६ ) शेते' यह रूप प्राप्त था। सिद्धि - (१) अदुह । दुह्+लङ् । अट्+दुह्+ल्। अ+दुह्+झ । अ+दुह्+शप्+झ । अ+दुह्+अत । अ+दुह्+रुट्+अत । अ+दुह्रुअ+अ | अ+दुह्+र्+अ । अदुह । यहां 'दुह प्रपूरणे' (अदा० उ० ) धातु से 'अनद्यतने लङ्-' ( ३ | ३ | १११ ) से 'लङ्' प्रत्यय है । 'आत्मनेपदेष्वनतः' (७1१14) से 'झ' के स्थान में 'अत' आदेश और 'बहुलं छन्दसि' (७ 1१1८) से इसे रुट् आगम होता है। इस सूत्र से 'अत' के 'तू' का लोप होता है। 'अतो गुणे' से पररूप एकादेश (अ+ अ =अ) होता है। (२) दुहाम् । दुह्+लोट् । दुह्+ल् । दुह्+झ । दुह्+शप्+झ । दुह्+0+अत । दुह्+रुट्+अते । दुह्+र्+अताम् । दुह्+र्+अ०आम्। दुह्+र्+आम्। दुह्राम् । यहां 'दुह प्रपूरणे' (अदा०प०) धातु से 'लोट् च' (३ । ३ । १६२ ) से 'लोट्' प्रत्यय है। 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से बहुवचन में लादेश 'झ', 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' (२/४/७२ ) से 'शप्' का लुक, 'आत्मनेपदेष्वनत:' ( ७ 1१14 ) से 'झ' के स्थान में 'अत्' आदेश, और 'टित आत्मनेपदानां टेरें (३।४।७९) से एत्व, 'आमेत:' ( ३।४1९०) से एकार को 'आम्' आदेश होता है। 'बहुलं छन्दसि' (७/१1८) से 'रुट्' आगम है। इस सूत्र से ‘अताम्' के 'त्' का लोप होता है। पुन: 'अकः सवर्णे दीर्घः' (६ 1१1९९) से दीर्घरूप एकादेश है (अ+आम्=आम्) । (३) उपशये । उप+शीङ्+लट् । उप+शी+ल् । उप+शी+शप्+त। उप+शी+०+त । उप+शी+ते । उप+शे+ए। उप+श् अय्+ए। उपशये । यहां उप-उपसर्गपूर्वक 'शीङ् स्वप्ने' (अदा०आ०) धातु से 'वर्तमाने लट्' (३ / २ / १२३) से 'लट्' प्रत्यय है। 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लादेश 'त' पूर्ववत् 'शम्' का लुक्, 'टित आत्मनेपदानां टेरें (३।४।७९) से एत्व और 'शीङः सार्वधातुके गुण:' (७/४/२१) से 'शीङ्' को गुण होता है। इस सूत्र से 'त' प्रत्यय के 'त्' का लोप होता है । 'एचोऽयवायाव:' ( ६ । १।७७) से 'अय्' आदेश है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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