SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 568
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः उदा०-(सकारान्त:) अग्निरत्र । वायुरत्र। (सजुष्) सजूऋषिभिः (ऋ०मै०सं० २।८१)। सजूदेवेभि: (ऋ० ७।३४ १५)। __आर्यभाषाअर्थ-(ससजुषः) सकारान्त और सजुष् (पदस्य) पद के अन्त्य वर्ण को (रु:) रु आदेश होता है। उदा०-(सकारान्त) अग्निरत्र । यहां अग्नि है। वायुरत्र । यहां वायु है। (सजुष्) सजूर्ऋषिभिः (ऋ०म०सं० २।८।१)। ऋषियों के साथ । सजूदेवेभिः (ऋ० ७।३४।१५)। देवों के साथ। देव विद्वान्। सिद्धि-(१) अग्निरत्र । अग्नि+सु। अग्नि+स्। अग्निस्+अत्र। अग्निरु+अत्र। अग्नि+अत्र। अग्निरत्र। यहां अग्नि' शब्द से स्वौजस०' (४।१।२) से 'सु' प्रत्यय है। उपदेशेऽजनुनासिक इत् (१।३।२) से उकार की इत्संज्ञा होकर 'तस्य लोपः' (१।३।९) उसका लोप होता है। इस सूत्र से सकारान्त 'अग्निस्' शब्द के अन्त्य सकार के स्थान में 'रु' आदेश होता है। पूर्ववत् उकार की इत्संज्ञा होकर उसका लोप होता है। ऐसे ही-वायुस+अत्र-वायुरत्र । (२) सजूर्ऋषिभिः । सजुष्' शब्द में सह-उपपद जुषी प्रीतिसेवनयोः' (तु आ०) धातु से वा०-'सम्पदादिभ्यः क्वि' (३।३।९४) से भाव अर्थ में स्विप' प्रत्यय है। इसका सर्वहारी लोप होता है। 'सह जुषते इति सजू: । वा०-उपपदमतिङ् (२।२।१९) से उपपदतत्पुरुष है। 'सहस्य स: संज्ञायाम् (६।३।७८) से 'सह' को 'स' आदेश होता है। यह सह-अर्थ का वाचक है। इस सूत्र से सजुष इस पद के अन्त्य षकार के स्थान में रु-आदेश होता है। यह सूत्र 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) का अपवाद है। निपातनम् (२) अवयाः श्वेतवाः पुरोडाश्च।६७। प०वि०- अवया: ११ (सम्बुद्धि:)। श्वेतवा: ११ (सम्बुद्धि:)। पुरोडा: १।१ (सम्बुद्धि:)। च अव्ययपदम्। अन्वय:-अवयाः श्वेतवा: पुरोडाश्चेति निपातनम् । अर्थ:-अवया:, श्वेतवा:, पुरोडा इत्येते शब्दाश्च निपात्यन्ते। उदा०-हे अवया: ! (मा०सं० ३।४६)। हे श्वेतवा: ! हे पुरोडा: ! (ऋ० ३।२८।२)। आर्यभाषा: अर्थ-(अवया:०) अवया:, श्वेतवाः, पुरोडा: ये शब्द (च) भी निपातित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy