________________
५४८
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-'स्पृशोऽनुदके क्विन्' (३।२।५८) घृतस्पृक् । हलस्पृक् । मन्त्रस्पृक् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(क्विन्प्रत्ययस्य) जिससे क्विन् प्रत्यय किया गया है उस धातु को (पदस्य) पद के अन्त में (कुः) कवगदिश होता है।
उदा०- स्पृशोऽनुदके क्विन्' (३।२।५८) घृतस्पृक् । घृत का स्पर्शमात्र करनेवाला (अल्पमात्रा में सेवन करनेवाला)। हलस्पृक् । हल का स्पर्श करनेवाला। मन्त्रस्पृक् । मन्त्रपूर्वक अगस्पर्श करनेवाला (उपासक)।
सिद्धि-घृतस्पृक् । यहां घृत-उपपद स्पृश संस्पर्शने (तु०प०) धातु से 'स्पृशोऽनुदके क्विन्' (३२।५८) से 'क्विन्' प्रत्यय है। क्विन्' का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से 'क्विन्' प्रत्ययान्त स्पृश्' धातु को पद के अन्त में कवगदिश होता है। विवृतकरण, श्वासानुप्रदान, अघोष शकार को तादृश ही कवर्ग खकारादेश किया जाता है। 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से खकार को जश् गकार और वाऽवसाने (८।४।५५) से गकार को चर् ककार होता है। ऐसे ही-हलस्पृक्, मन्त्रस्पृक् । कु-आदेशविकल्प:
(२) नशेर्वा ।६३। प०वि०-नशे: ६१ वा अव्ययपदम्। अनु०-पदस्य, धातो: कुरिति चानुवर्तते । अन्वय:-नशेर्धातो: पदस्य वा कुः । अर्थ:-नशेर्धातो: पदस्यान्ते विकल्पेन कवदिशो भवति ।
उदा०-सा वै जीवनगाहुतिः। सा वै जीवनडाहुति: (मै०सं० १।४।१३)।
आर्यभाषा: अर्थ-(नशे:) नश् इस (धातो:) धातु को (पदस्य) पद के अन्त में (वा) विकल्प से (कु:) कवगदिश होता है।
उदा०-सा वै जीवनगाहुति: । सा वै जीवनडाहुति: (मै०सं०१।४।१३)। वह आहुति तो जीव का नाश करनेवाली है।
सिद्धि-(१) जीवनक् । यहां जीव-उपपद ‘णश अदर्शने (दि०प०) धातु से वा०-सम्पदादिभ्य: क्विप्' (३।३।९४) से 'क्विप्' प्रत्यय है। क्विप्' प्रत्यय का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से नश्' धातु को पद के अन्त में कवगदिश होता है। पूर्ववत् शकार को कवर्ग खकार, खकार को जश् गकार और गकार को चर् ककार होता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org