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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
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(प्रतूर्त) प्रतूर्त वाजिन् ( तै०सं० ४ । १ । २ । १) । प्रतूर्त = अत्यन्त गतिशील। भाषा में - प्रतूर्णम् । (सूर्त) सूर्ती गाव: । सूर्त = गतिशील। भाषा में सृतम् । ( गूर्त) गूर्ता अमृतस्य (यजु० ६ । ३४) । गूर्ता= उठे हुये । भाषा में गूर्णम् ।
सिद्धि-(१) नसत्तम् । यह नञ् - पूर्वक 'षट्ट विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। 'रदाभ्यां निष्ठातो०' (८/२ ।४२ ) से निष्ठा के तकार को नकारादेश और पूर्ववर्ती धातुस्थ दकार के भी नकारादेश प्राप्त है। इस सूत्र से वेदविषय में नकारादेश का अभाव निपातित है ।
(२) निषत्तम् । नि-उपसर्गपूर्वक 'सद्' धातु से पूर्ववत् । 'सदिरप्रते:' ( ६ | ३ |६६) से षत्व होता है।
(३) अनुत्तम् । यहां नञ्- पूर्वक 'उन्दी क्लेदने' (रुधा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। 'अनिदितां हल उपधाया: क्ङिति (६ । ४ । २४) से धातुस्थ अनुनासिक (न्) का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(४) प्रतूर्तम् । प्र- उपसर्गपूर्वक 'त्त्वरा सम्भ्रमें' (भ्वा०आ०) अथवा 'तुर्वी गत्यर्थ:' (श्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है । पूर्ववत् नत्वाभाव निपातित है।
(५) सूर्तम् । यहां सृ गतौं' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय और धातुस्थ ऋकार को उकारादेश और नत्वाभाव निपातित है। इसे 'उरण् रपरः' (१1१148) से रपरत्व और 'हलि च' (८/२/७७ ) से दीर्घ होता है।
(६) गूर्तम् | यहां 'गूरी उद्यमने ( दि०आ०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। 'रदाभ्यां निष्ठातो०' (८०४ । ४२) से नकारादेश प्राप्त है, अत: इस सूत्र से नकारादेश का अभाव निपातित है।
।। इति निष्ठातकारादेशप्रकरणम् ।।
आदेशप्रकरणम्
कु-आदेश:
(१) क्विन्प्रत्ययस्य कुः । ६२ ।
प०वि० - क्विन्प्रत्ययस्य ६ । १ कुः १ । १ ।
ॐ० - क्विन् प्रत्ययो यस्माद् धातोः स क्विन्प्रत्ययः, तस्य क्विन्
प्रत्ययस्य ( बहुव्रीहि: ) ।
1
अनु०-पदस्य, धातोरिति चानुवर्तते अन्वयः - क्विन्प्रत्ययस्य धातोः पदस्य कुः ।
अर्थ:- क्विन्प्रत्ययस्य धातो: पदस्यान्ते कवगदिशो भवति ।
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