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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (४) तात् । तत्+शस् । तत्+आत् । त अ+आत् । तात् ।
यहां तत्' शब्द से पूर्ववत् 'शस्' प्रत्यय है। इस सूत्र से छन्दविषय में 'शस्' को 'आत्' आदेश होता है। 'त्यादादीनाम:' (७।२।१०२) से 'तत्' को अकार अन्तादेश होता है।
(५) युष्मे । युष्मद्+जस् । युष्मद्+शे। युष्मद्+ए। युष्म+ए । युष्मे।
यहां युष्मद्' शब्द से पूर्ववत् 'जस्' प्रत्यय है। इस सूत्र से जस्’ को शे' आदेश होता है। शेषे लोप:' (७।२।७२) से युष्मद्' के टि-भाग (अद्) का लोप होता है। छन्दोविषय होने से यूयवयौ जसि' (७।२।९३) से यूय-आदेश नहीं होता है। ऐसे ही अस्मद्' शब्द से-अस्मे।
(६) उरुया। उरु+टा। उरु+या। उरुया।
यहां उरु' शब्द से पूर्ववत् 'टा' प्रत्यय है। इस सत्र से छन्दविषय में टा' को या' आदेश होता है। ऐसे ही 'धृष्णु' शब्द से-धृष्णुया।
(७) नाभा । नाभि+ङि । नाभि+डा। नाभ्+आ। नाभा।
यहां नाभि' शब्द से पूर्ववत् डि' प्रत्यय है। इस सूत्र से छन्दविषय में 'डि' को 'डा' आदेश होता है। आदेश के डित् होने से वा०-डित्यभस्यापि टेर्लोप:' (६ ।४।१४३) से अङ्ग के टि-भाग (इ) का लोप होता है।
(८) अनुष्ट्या । अनुष्टुप्+टा। अनुष्टुप् ड्या। अनुष्टुप्+या। अनुष्ट्+या। अनुष्ट्या ।
यहां 'अनुष्टुप्' शब्द से पूर्ववत् 'टा' प्रत्यय है। इस सूत्र से छन्दविषय में 'टा' को 'ड्या' आदेश होता है। आदेश के डित् होने से वा०-'डित्यभस्यापि टेर्लोप:' (६।४।१४३) से अङ्ग के टि-भाग (उप) का लोप होता है।
(९) साधुया। साधु+सु । साधु याच् । साधु+या। साधुया।
यहां साधु' शब्द से पूर्ववत् सु' प्रत्यय है। इस सूत्र से छन्दविषय में 'सु' को याच्' होता है।
(१०) वसन्ता। वसन्त+ङि । वसन्त+आल्। वसन्त+अ। वसन्ता।
यहां वसन्त' शब्द से पूर्ववत् डि' प्रत्यय है। इस सूत्र से डि' को 'आप' आदेश होता है। मश्-आदेशः
(४०) अमो मश्।४०। प०वि०-अम: ६।१ मश् १।१।। अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्य, छन्दसि इति चानुवर्तते।
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