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सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः (५) शे-आदेश:-न युष्मे वाजबन्धव: (ऋ० ८।६८।१९)। अस्मे इन्द्राबृहस्पती (ऋ० ४।४९।४)। यूयम्, वयमिति प्राप्ते। यूयादेशो वयादेशश्च च्छान्दसत्वान्न भवति।
(६) या-आदेश:-उरुया (मै०सं० २।७।८)। धृष्णुया (ऋ० १।२३।२)। उरुणा, धृष्णुना इति प्राप्ते।
(७) डा-आदेश:-नाभा पृथिव्याम् (शौ०सं० ७।६२।१)। नाभौ पृथिव्यामिति प्राप्ते।
(८) ड्या-आदेश:-अनुष्ट्या व्यावयतात् । अनुष्टुभा इति प्राप्ते।
(९) याच्-आदेश:-साधुया (ऋ० १०।६६।१२) साधु इति सोलुंकि प्राप्ते।
(१०) आल्-आदेश:-वसन्ता यजेत (मै०सं० २१ ।४)। वसन्ते इति प्राप्ते।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (अङ्गात्) अङ्ग से परे (सुपाम्) सुप् (प्रत्ययानाम्) प्रत्ययों के स्थान में (सु०आल:) सु, लुक्, पूर्वसवर्ण, आत्, शे, या, डा, ड्या, याच्, आल् आदेश होते हैं।
उदा०-इनके उदाहरण संस्कृत-भाग में लिखे हैं।
सिद्धि-(१) पन्थाः। पथिन्+जस्। पथिन्+सु। पथि आ+सु। पथ्आ+स् । पन्थ आ+स् । पन्थाः ।
यहां पथिन्' शब्द से स्वौजस०' (४।१।२) से 'जस्' प्रत्यय है। इस सूत्र से छन्द में जस्' के स्थान में सु' आदेश होता है। 'पथिमथ्यमुक्षामात्' (७।१।८५) नकार को आकार-आदेश, 'इतोऽत् सर्वनामस्थाने (७।१।८६) से इकार को अकार-आदेश और 'थोन्थः' (७।१।८७) से थकार को 'न्थ' आदेश होता है।
(२) चर्मन् । चर्मन्+ङि। चर्मन्+० । चर्मन् ।
यहां चर्मन्’ शब्द से पूर्ववत् 'डि' प्रत्यय है। इस सूत्र से छन्दविषय में डि' का लुक् होता है।
(३) धीती। धीती+टा। धीती+आ। धीती।
यहां 'धीती' शब्द से पूर्ववत् 'टा' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'टा' (आ) को पूर्वसवर्ण (ई) होता है। ऐसे ही-मती, सुष्टुती।
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