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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् होता है। 'झलां जशोऽन्ते' (८।२।३९) से ढकार को जश् डकार और वाऽवसाने (८।४।५५) से डकार को चर् टकार होता है। अत उपधाया:' (७।२।११६) से सह' को उपधावृद्धि सहे: साडः सः' (८।३।५६) से षत्व और 'अन्येषामपि दृश्यते (६ ॥३।१३५) से दीर्घ होता है।
(२) प्रष्ठवाट् । यहां प्रष्ठ-उपपद वह प्रापणे (भ्वा०प०) धातु से वहश्च' ३।२।६४) से ण्वि' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही दित्य-उपपद वह्' धातु से-दित्यवाट् ।
(३) सोढा । यहां पह मर्षणे (भ्वा०आ०) धातु से ‘ण्वुल्तृचौ' (३।१।१३३) से तिच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से झलादि तच्' प्रत्यय परे होने पर सह' के हकार को ढकारादेश होता है। 'झषस्तथो?ऽध:' (८।२।४०) से तकार को धकार और ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से धकार को टवर्ग ढकार और ढो ढे लोप:' (८।३।१३) से पूर्ववर्ती ढकार का लोप हो जाता है। सहिवहोरोदवर्णस्य' (६।३।११०) से 'सह' के अवर्ण को ओकारादेश होता है। वह प्रापणे (भ्वा०प०) धातु से-वोढा ।
(४) सोढुम् । यहां 'सह्' धातु से पूर्ववत् तुमुन्' प्रत्यय है। 'वह' धातु से-वोढुम् । शेष कार्य पूर्ववत् है।
(५) सोढव्यम्। यहां सह' धातु से पूर्ववत् 'तव्यत्' प्रत्यय है। 'वह' धातु से-वोढव्यम् । शेष कार्य पूर्ववत् है। घ-आदेश:
(१५) दादेर्धातोर्घः।३२। प०वि०-दादे: ६१ धातो: ६।१ घ: ११ । स०-द आदिर्यस्य स दादिः, तस्य-दादे: (बहुव्रीहिः)। अनु०-पदस्य, झलि, अन्ते, ह इति चानुवर्तते। अन्वय:-दादेर्धातोर्ह: पदस्यान्ते झलि च घः।
अर्थ:-दकारादेर्धातोर्हकारस्य स्थाने पदस्यान्ते झलादौ च प्रत्यये परतो घकारादेशो भवति।
उदा०- (पदान्ते) दह्-काष्ठधक् । दुह्-गोधुक् । (झलि) दह्-दग्धा, दग्धुम्, दाधतव्यम् । दुह्-दोग्धा, दोग्धुम्, दोग्धव्यम् ।
__ आर्यभाषा अर्थ-(दादेः) दकार जिसके आदि में है उस (धातो:) धातु के (ह:) हकार के स्थान में (पदस्य) पद के (अन्ते) अन्त में और (झलि) झलादि प्रत्यय परे होने पर (घ:) धकारादेश होता है।
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