SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः ५१५ (२) वाक् । यहां वच परिभाषणे (अदा०प०) धातु से क्विब् वचिपच्छिश्रित्रुघुज्वां दीर्घोऽसम्प्रसारणं च' (उणा० २।५८) से क्विप्' प्रत्यय, दीर्घ और 'वचिस्वपि यजादीनां किति (६।१।१५) से प्राप्त सम्प्रसारण का प्रतिषेध है। इस सूत्र से पदान्त में विद्यमान वच्’ के चकार को ककार आदेश होता है। (३) पक्ता। यहां पच्' धातु से ‘ण्वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से झलादि तृच्' प्रत्यय परे होने पर पच्' के चकार को ककार आदेश होता है। वच परिभाषणे' (अदा०प०) धातु से-वक्ता। (४) पक्तुम् । यहां पच्' धातु से 'तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्' (३।३।१०) से तुमुन्' प्रत्यय है। सूत्रकार्य पूर्ववत् है। वच्' धातु से-वक्तुम् । (५) पक्तव्यम् । यहां 'पच्' धातु से तव्यत्तव्यानीयरः' (३।१।९६) से तव्यत्' प्रत्यय है। इस सूत्र से झलादि 'तच्' प्रत्यय परे होने पर पच्’ के चकार को ककार आदेश होता है। सूत्रकार्य पूर्ववत् है। वच्' धातु से-वक्तव्यम् । ढ-आदेश: (१४) हो ढः।३१। प०वि०-ह: ६१ ढ: ११। अनु०-पदस्य, झलि, अन्ते इति चानुवर्तते। अन्वय:-ह: पदस्यान्ते झलि च ढः । अर्थ:-हकारस्य स्थाने पदस्यान्ते झलादौ च प्रत्यये परतो ढकारादेशो भवति। __ उदा०-(पदान्ते) जलाषाट । प्रष्ठवाट । दित्यवाट् । (झलि) सोढा, सोढुम्, सोढव्यम् । वोढा, वोढुम्, वोढव्यम्। आर्यभाषा: अर्थ-(ह:) हकार के स्थान में (पदस्य) पद के (अन्ते) अन्त में और (झलि) झलादि प्रत्यय परे होने पर (ढ:) ढकारादेश होता है। उदा०-(पदान्त) जलाषाट् । जल=सुख-शान्ति का अनुभव करनेवाला। प्रष्ठवाट् । हल में जोतने योग्य बैल। दित्यवाट् । गौ। (झलि) सोढा । सहन करनेवाला। सोढुम् । सहन करने के लिये। सोढव्यम्। सहन करना चाहिए। वोढा। वहन करनेवाला। वोढुम् । वहन करने के लिये। वोढव्यम् । वहन करना चाहिये। सिद्धि-(१) जलाषाट्। यहां जल-उपपद 'पह मर्षणे (भ्वा०आ०) धातु से 'छन्दसि सहः' (३।२।६३) से ण्वि' प्रत्यय है। वरप्रक्तस्य' (६।१।६६) से ण्वि' का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से पदान्त में विद्यमान सह' के हकार को ढकारादेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy