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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
होता है। 'ओदितश्च' (८।२।४५) से निष्ठा-तकार को नकार और 'चोः कुः' (८/२/३०) से जकार को कवर्ग गकार होता है 'क्तवतु' प्रत्यय में- लग्नवान् ।
(३) काष्ठतट् । काष्ठ+तक्ष्+क्विप् । काष्ठ+तक्ष्+वि। काष्ठ+तक्ष्+01 काष्ठ+तक्ष्+सु । काष्ठ+तक्ष्+0 । काष्ठ+त०ष् । काष्ठ+त ड् । काष्ठतट् ।
यहां काष्ठ- उपपद 'तक्षू तनूकरणे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् क्विप्' प्रत्यय और इसका सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से पदान्त में संयोग के आदि में विद्यमान 'तक्ष' के ककार का लोप होता है। 'झलां जशोऽन्ते' (७/२/३९) से षकार को जश् डकार और 'वाऽवसाने' (८/४/५५ ) से डकार को चर् टकार होता है।
(४) तष्ट: । तक्ष्+क्त । तक्ष्+त। त०ष्+ट। तष्ट+सु। तष्टः ।
यहां 'तक्षू तनूकरणे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है । इस सूत्र 'तक्ष्' के संयोगादि ककार का झलादि 'त' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। 'ष्टुना ष्टुः' (८/४/४१) से तकार को टवर्ग टकार होता है। क्तवतु प्रत्यय में तष्टवान् ।
कवर्गादेश:
(१३) चोः कुः । ३० ।
प०वि० - चो: ६ । १ कुः १ । १ ।
अनु० - पदस्य झलि, अन्ते इति चानुवर्तते ।
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अन्वयः - चो: पदस्यान्ते झलि च कुः ।
अर्थ:- चवर्गस्य स्थाने पदस्यान्ते झलादौ प्रत्यये परतश्च कवगदिशो
भवति ।
उदा०- (पदान्ते) ओदनपक् । वाक् । ( झलि ) पक्ता, पक्तुम्, पक्तव्यम्। वक्ता, वक्तुम्, वक्तव्यम्।
आर्यभाषाः अर्थ- (चो:) चवर्ग के स्थान में (पदस्य) पद के (अन्ते) अन्त में और (झलि) झलादि प्रत्यय परे होने पर (कुः) कवगदिश होता है।
उदा०- - (पदान्त) ओदनपक् । चावल पकानेवाला । वाक् । वाणी । (झल्) पक्ता । पकानेवाला । पक्तुम् । पकाने के लिये पक्तव्यम् । पकाना चाहिये। वक्ता । बोलनेवाला । वक्तुम् । बोलने के लिये । वक्तव्यम् । बोलना चाहिये ।
सिद्धि- (१) ओदनपक् । यहां ओदन - उपपद डुपचष् पाके' ( (भ्वा०3०) धातु से 'क्विप् च' (३/२/७६ ) से क्विप्' प्रत्यय है। वैरपृक्तस्य' (६ /१/६६ ) से क्विप् का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से पदान्त में विद्यमान 'पच्' के चकार को ककार आदेश होता है।
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