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________________ अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः ५१३ ५१३ सकार-ककारलोप: (१२) स्कोः संयोगाद्योरन्ते च।२६। प०वि०-स्को: ६।२ संयोगाद्यो: ६ ।२ अन्ते ७१ च अव्ययपदम् । स०-सश्च कश्च तौ स्कौ, तयो:-स्को: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:) । संयोगस्य आदी इति संयोगादी, तयो:-संयोगाद्यो: (षष्ठीतत्पुरुषः)। अनु०-पदस्य, लोप:, झलीति चानुवर्तते। अन्वय:-पदस्याऽन्ते झलि च संयोगाद्यो: स्कोर्लोपः। अर्थ:-पदस्याऽन्ते झलादौ प्रत्यये परतश्च वर्तमानयोः संयोगाद्यो: सकारककारयोर्लोपो भवति। उदा०-(पदान्ते) संयोगादिसकार:-साधुलक्। (झलि) संयोगादिसकार:-लग्न:, लग्नवान्। (पदान्ते) संयोगादिककार:-काष्टतट । (झलि) संयोगादिककार:-तष्ट:, तष्टवान्। आर्यभाषा: अर्थ-(पदस्य) पद के (अन्ते) अन्त में (च) और (झलि) झलादि प्रत्यय परे होने पर विद्यमान (संयोगाद्यो:) संयोग के आदिभूत (स्को:) सकार और ककार वर्ण का (लोप:) लोप होता है। उदा०-(पदान्त) संयोगादि सकार-साधुलक् । यथोचित वीड़ा (लज्जा) करनेवाला। (झलि) संयोगादि सकार-लग्न:, लग्नवान् । उसने लज्जा की। (पदान्त) संयोगादि ककार-काष्टतः । यथोचित छीलनेवाला तक्षक । (झलि) संयोगादि ककार-तष्टः, तष्टवान् । उसने छीला। सिद्धि-(१) साधुलुक् । साधु+लस्+क्विप्। साधु+लस्ज+वि। साधु+लस्ज्+० । साधुलस्ज्+सु । साधुलस्+० । साधु+ल०ज् । साधुलम्। साधुला। यहां साधु-उपपद ओलस्जी व्रीडायाम्' (तु०आ०) धातु से 'क्विप् च (३।२१७६) से 'क्विप' प्रत्यय है। वरपक्तस्य' (६।११६६) से 'क्विप' का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से पदान्त में संयोग के आदि में विद्यमान लस्ज्' के सकार का लोप होता है। चो: कुः' (७।२।३०) से जकार को कवर्ग गकार और वाऽवसाने (८।४।५६) से गकार को चर् ककार होता है। (२) लग्नः । लस्+क्त । लस्ज्+त । लज्+त। लज्+न । लग्+न। लग्नः । यहां 'ओलस्जी व्रीडायाम्' (तु०आ०) धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से झलादि 'त' प्रत्यय परे होने पर लस्ज्' के संयोगादि सकार का लोप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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