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________________ ५१२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-अकृत । कृ+लुङ् । अट्+कृ+लि+ल। अ+कृ+सिच्+त। अ+कृ+स्+त। अ++o+त। अकृत। ___ यहां 'डुकृञ् करणे (तनाउ०) धातु से 'लुङ् (३।२।११०) से लुङ्' प्रत्यय है। 'तिपतस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में आत्मनेपद में त' आदेश और च्ले: सिच् (३।११४४) से चिल' के स्थान में सिच्' आदेश है। इस सूत्र से ह्रस्वान्त अङ्ग 'कृ' से परवर्ती सकार का झलादि त' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। 'थास्' प्रत्यय में-अकृथाः । हृञ् हरणे' (भ्वा०उ०) धातु से-अहृत, अहृथाः । स-लोपः (११) इट ईटि।२८। प०वि०-इट: ५।१ ईटि ७।१। अनु०-लोपः, सस्येति चानुवर्तते। अन्वय:-इट: सस्य ईटि लोपः। अर्थ:-इट: परस्य सकारस्य इडादौ प्रत्यये परतो लोपो भवति । उदा०-अदेवीत् । असेवीत् । अकोषीत्। अमोषीत् । आर्यभाषा: अर्थ-(इट:) इट् से परवर्ती (सस्य) सकार का (ईटि) इडादि प्रत्यय परे होने पर (लोप:) लोप होता है। उदा०-अदेवीत् । उसने क्रीडा आदि की। असेवीत् । उसने सिलाई की। अकोषीत् । उसने बाहर निकाला। अमोषीत् । उसने चोरी की। सिद्धि-(१) अदेवीत् । यहां 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु' (दि०प०) धातु से 'लुङ् (३।२।११०) से 'लुङ्' प्रत्यय है। तिप्तझि' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश है। ले: सिच' (३।११४४) से च्लि' के स्थान में सिच्’ आदेश, 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७/२।३५) से इसे इडागम और 'अस्तिसिचोऽपृक्ते' (७।३।९६) से अपृक्त त् (तिम्) प्रत्यय को ईट् आगम होता है। इस सूत्र से 'इट्' से परवर्ती सिच्’ के सकार का ईडादि तिम् प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। (२) असेवीत् । षिवु तन्तुसन्ताने' (दि०प०) । (३) अकोषीत् । 'कुष निष्कर्षे' (क्रया०प०)। (४) अमोषीत् । 'मुष स्तेये' (क्रया०प०)। यहां वदतजहलन्तस्याच:' (७।२।३) सूत्र से प्राप्त वृद्धि का नेटि' (७।२।४) से प्रतिषेध होने से 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७ १३ ।८६) से लघूपधलक्षण गुण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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