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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
५०५ उदा०-कल्प्ता, कल्प्तारौ. कल्प्तारः। चिक्लृप्सति । क्लृप्तः, क्लृप्तवान्।
आर्यभाषा: अर्थ-(कृपः) कृप् धातु के (र:) रेफ के स्थान में (ल:) लकारादेश होता है।
उदा-कल्प्ता। वह समर्थ होगा। कल्प्तारौ । वे दोनों समर्थ होंगे। कल्प्तारः। वे सब समर्थ होंगे। चिक्लृप्सति । वह समर्थ होना चाहता है। क्लृप्तः, क्लृप्तवान् । समर्थ हुआ।
सिद्धि-(१) कल्प्ता। यहां कृपू सामर्थ्ये' (भ्वा० आ०) धातु रो 'अनद्यतने लुट्' (३।३।१५) से लुट' प्रत्यय है। 'स्यतासी ललुटोः' (३।११३६) से 'तासि' प्रत्यय, तिप्तस्झिा ' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'तिम् आदेश और लुट: प्रथमस्य डारौरसः' (२।५८५) से 'तिम्' के स्थान में 'डा' आदेश है। लुटि च क्लप:' (१३।९३) से परस्मैपद होता है। पूगन्तलघूपधस्य च (७१३१८६) से लघूपधलक्षण गुण (अर्) होकर इस सूत्र से रेफ के स्थान में लकारादेश होता है। ऐसे ही तस् (रौ) प्रत्यय में-कल्प्तारौ। झि (रस्) प्रत्यय में-कल्प्तारः।
(२) चिक्लप्सति। यहां कृप्' धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तकादिच्छायां वा' (३।११७) से इच्छा अर्थ में सन्' प्रत्यय है। हलन्ताच्च' (१।२।१०) से झलादि सन् के किद्वत् होने से 'पुगन्तलघूपधस्य च (७।३।८६) से प्राप्त लघूपधलक्षण गुण का विडति च' (१।११५) से प्रतिषेध होता है। अत: इस सूत्र से कृप्' धातु से ऋकार में जो रेफश्रुति है, उसे लभुति रूप आदेश होता है। ऐसे ही 'क्त' प्रत्यय में-क्लप्त: । क्तवतु प्रत्यय में-क्लुप्तवान्।
विशेष: कृम्' धातु को लघूपधलक्षण गुण होकर जो रेफ उपलब्ध होता है अधवा कृप्' धातु के अकार में जो रेफश्रुति है, वहां इस सूत्र से रेफ के स्थान में लकारादेश होता है। ल-आदेश:
(२) उपसर्गस्यायतौ।१६ ए०नि० - उपसर्गस्य ६१ अयतौ ७।१। अनु. २., ल इति चानुवर्तते। अन्चयः- उपसर्गस्य रोऽयतौ लः। अर्थ:-उपसर्गस्थस्य रेफस्य स्थानेऽयतौ परतो लकारादेशो भवति। उदा०-(प्र) स प्लायते। (परा) स पलायते ।
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