________________
५०४
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् शीर्षन्' शब्द से-शीर्षण्वती। शीर्षछन्दसि' (६।१।५९) से वेद में शिरस्' के स्थान में शीर्षन्' आदेश होता है। 'मूर्धन्' शब्द से-मूर्धन्वती। 'उगितश्च' (४।१।६) से स्त्रीलिङ्ग में 'डीप्' प्रत्यय है। नुट-आगम:
(२) नाद्घस्य ।१७। प०वि०-नात् ५।१ घस्य ६।१। अनु०-पदस्य, प्रातिपदिकस्य, छन्दसि, नुडिति चानुवर्तते । अन्वय:-छन्दसि नात् प्रातिपदिकात् पदाद् घस्य नुट ।
अर्थ:-छन्दसि विषये नकारान्तात् प्रातिपदिकात् पदात् परस्य घ-संज्ञकस्य प्रत्ययस्य नुडागमो भवति।
उदा०-सुपथिन्तरः । दस्युहन्तमः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (नात्) नकारान्त (प्रातिपदिकात्) प्रातिपदिक (पदात्) पद से परे (घस्य) घ-संज्ञक प्रत्यय को (नुट्) नुट् आगम होता है।
उदा०-सुपथिन्तरः । दोनों में से अति उत्तम पथ। दस्युहन्तमः । बहुतों में से अतिशायी अनार्यों का हनन करनेवाला।
सिद्धि-सुपथिन्तरः । सुपथिन्+तरप्। सुपथिन्+नुट्+तर। सुपथि०+-+तर । सुपथिन्तर+सु । सुपथिन्तरः।
यहां 'सुपथिन्' शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' (५।३।५७) से तरप्' प्रत्यय है। इसकी तरपतमपौ घः' (१।१।२२) से घ-संज्ञा है। इस सूत्र से नकारान्त 'पथिन्' प्रातिपदिक पद से परे तरम्' प्रत्यय को नुट्' आगम होता है। नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२७) से सुपथिन्' के नकार का लोप होता है। ऐसे ही वृत्रहन्' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' (५।३।५५) से तमप्' प्रत्यय में-वृत्रहन्तमः ।
{आदेशप्रकरणम् ल-आदेश:
(१) कृपो रो लः।१८। प०वि०-कृप: ६१ र: ६१ ल: १।१। अर्थ:-कृपो धातो रेफस्य स्थाने लकारादेशो भवति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org