SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ જs पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-किंवान् । किम्+मतुप् । किम्+मत्। किम्+वत् । किंवत्+सु । किंवनुम्त्+स् । किंवन्त्+स् । किंवन्+स् । किंवान्+० । किंवान्। यहां किम्' शब्द से तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतु' (५।२।९४) से मतुप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से मकारान्त किम्' शब्द से परे 'मतुप' के मकार को वकारादेश होता है और यह आदे: परस्य (१११५४) के नियम से मतुप् के आदिम मकार को किया जाता है। उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो: (७।१।७०) से नुम्' आगम, संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से तकार का लोप, 'सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ' (६।४।८) से नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ और हल्डयाब्भ्यो दीर्घात्०' (६।१।६७) से 'सु' का लोप होता है। ऐसे ही शंवान्' आदि। वकारादेश: _(७) झयः।१०। वि०-झय: ५।१। अनु०-पदस्य, प्रातिपदिकस्य, मतो:, व इति चानुवर्तते। अन्वय:-झय: प्रातिपदिकस्य पदस्य मतोर्वः ।। अर्थ:-झयन्तात् प्रातिपदिकात् पदात् परस्य मतो: स्थाने वकारादेशो भवति। उदा०-अग्निचित्वान् ग्रामः । उदश्वित्वान् घोषः। विद्युत्वान् बलाहकः । इन्द्रो मरुत्वान् (आ०श्रौ० २।११।१०)। दृषद्वान् देशः । आर्यभाषा: अर्थ-(झयः) झय् वर्ण जिसके अन्त में है उस (प्रातिपदिकात्) प्रातिपदिक (पदात्) पद से परे (मतो:) मतुप् प्रत्यय के स्थान में (व:) वकारादेश होता है। उदा०-अग्निचित्वान् ग्राम: । आन्याधान करनेवाला ग्राम । उदश्वित्वान् घोषः । लस्सीवाला शब्दविशेष। विद्युत्वान् बलाहकः । बिजलीवाला बादल। इन्द्रो मरुत्वान् (आ०श्रौ० २।११।१०)। मरुत् देवतावाला इन्द्र। दृषद्वान् देश: । पत्थरवाला (पथरीला) देश। सिद्धि-अग्निचित्वान्। अग्निचित्+मतुम्। अग्निचित्+वत्। अग्निचित्वत्+सु। अग्निचित्वान्। यहां 'अग्निचित्' शब्द से पूर्ववत् 'मतुप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से झयन्त (त्) अग्निचित् शब्द से परे 'मतुप्' प्रत्यय के मकार को वकारादेश होता है। शेष कार्य 'किंवान्' (८।२।९) के तुल्य है। ऐसे ही उदश्वित्वान्' आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy