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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः आर्यभाषा: अर्थ-(उदात्तस्वरितयो:) उदात्त और स्वरित के स्थान में जो (यण:) यण आदेश है उससे परवर्ती (अनुदात्तस्य) अनुदात्त के स्थान में (स्वरित:) स्वरित आदेश होता है।
उदा०-(उदात्तयण) कुमायौँ। दो कुमारियां। कुमार्यः। सब कुमारियां । (स्वरितयण) सकृल्ल्वाशा । एक बार छेदन करनेवाले में, इच्छा। खलाशा । खलिहान को शुद्ध करनेवाले में, इच्छा। ___सिद्धि-(१) कुमायौँ। कुमार+डीए । कुमा+ई। कुमारी । कुमारी+औ। कुमार्य औ। कुमार्यो।
यहां कुमार' शब्द से वयसि प्रथमे' (४।१।२०) से 'डीप्' प्रत्यय है। यह प्रत्यय पित् होने से 'अनुदात्तौ सुप्पितौ' (३।१।४) से अनुदात्त है। यस्येति च (६।४।१४८) से अङ्ग के अकार का लोप होता है। अत: 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोप:' (६।१।१५८) इस उदात्तनिवृत्तिस्वर से कुमारी' शब्द अन्तोदात्त है। 'इको यणचि (६।११७६) से उदात्त यण-आदेश होता है। इस सूत्र से उदात्तयण से परवर्ती औ' अनुदात्त प्रत्यय को स्वरित आदेश होता है। अनुदात्तौ सुप्पितौ' (३।१।४) से 'औ' प्रत्यय सुप्-लक्षण अनुदात्त है। ऐसे ही जस् प्रत्यय में-कुमार्य:।
(२) सकृल्वाशा । यहां सकृत्-उपपद लून छेदने (क्रया उ०) धातु से क्विप च (३।२।७६) से 'क्विप्' प्रत्यय है। वरपृक्तस्य' (६।१।६६) से 'क्विप्' का सर्वहारी लोप होता है। सकृत् और लू शब्दों को उपपदमतिङ् (२।२।१९) से उपपदतत्पुरुष समास है। अत: सकल्लू' शब्द 'गतिकारकोपदात् कृत (६ ।।२।१३८) से अन्तोदात्त है। 'सकल्लू' शब्द से 'डि' प्रत्यय है-सकल्लवि। 'डि' प्रत्यय 'अनुदात्तौ सपपितौं' (३।१।४) से सुप्-लक्षण अनुदात्त है। इसे उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६६) से स्वरित होता है। 'आशा' शब्द परे होने पर 'एचोऽयवायाव:' (६।१।७७) से 'यण' आदेश होता है। इस स्वरित यण से परवर्ती अनुदात्त को इस सूत्र से स्वरित आदेश होता है। 'आशाया अदिगाख्या चेत् (फिट ११८) से दिशा-अर्थ से भिन्न 'आशा' शब्द अन्तोदात्त है, अत: 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम् (६।१।१५२) से इसका आदिम आकार अनुदात्त है-आशा । ऐसे ही खल-उपपद पून पवने (क्रया०उ०) धातु से-खलप्वाशा। उदात्तः (एकादेशः)
(२) एकादेश उदात्तेनोदात्तः।५। प०वि०-एकादेश: ११ उदात्तेन ३१ उदात्त: १।१ । स०-एकश्चासावादेशश्चेति एकादेश: (कर्मधारयतत्पुरुषः) । अनु०-अनुदात्तस्येत्यनुवर्तते।
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