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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
अन्वयः - उदात्तेनाऽनुदात्तस्यैकादेश उदात्त: ।
अर्थ:- उदात्तेन सहाऽनुदात्तस्य य एकादेश स उदात्तो भवति उदा० - अग्नी । वायू । वृक्षैः । प्लक्षैः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (उदात्तेन) उदात्त के साथ जो (अनुदात्तस्य) अनुदात्त का ( एकादेश:) एक- आदेश है, वह ( उदात्तः) उदात्त होता है।
उदा० - अग्नी | दो अग्नि देवता । वायू । दो वायु देवता । वृक्षैः । सब वृक्षों से। प्लक्षैः । सब पिलखणों से ।
सिद्धि - अग्नी । अग्नि + औ । अग्नी+० । अग्नी ।
यहां 'अग्नि' शब्द से 'स्वौजस०' (४ 1१1२) से 'औ' प्रत्यय है । 'अग्नि' शब्द 'फिषोऽन्तोदात्त:' (फिट्० १1१ ) से अन्तोदात्त है और 'औ' प्रत्यय 'अनुदात्तौ सुप्ति (३।१।४) से सुप्-लक्षण अनुदात्त है। इसे 'प्रथमयोः पूर्वसवर्ण:' ( ६ | १/९८) से पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश (ई) होता है। इस सूत्र से यह उदात्त और अनुदात्त का एकादेश, उदात्त होता है। ऐसे ही 'वायु' शब्द से - वायू । 'वृक्ष' शब्द से भिस्' प्रत्यय में वृक्षैः । 'प्लक्ष' शब्द से प्लक्षैः ।
वा स्वरितः (एकादेशः) -
(३) स्वरितो वाऽनुदात्ते पदादौ । ६ ।
प०वि०-स्वरितः १ ।१ वा अव्ययपदम्, अनुदात्ते ७ । १ पदादौ ७ । १ । सo - पदस्याऽऽदिरिति पदादि:, तस्मिन् पदादौ ( षष्ठीतत्पुरुषः ) । अनु०-एकादेशः, उदात्तेन, अनुदात्तस्येति चानुवर्तते । अन्वयः-उदात्तेनाऽनुदात्तस्यैकादेशः पदादावनुदात्ते वा स्वरितः । अर्थ :- उदात्तेन सहानुदात्तस्य य एकादेशः, स पदादावनुदात्ते परतो विकल्पेन स्वरितो भवति । पक्षे च पूर्वेण प्राप्त उदात्तो भवति ।
उदा० - सु + उत्थितः सूत्थितः सूत्थितः । वि + ईक्षते = वीक्षते, वीक्षते । वसुकः+असि=व॒सु॒ऽसि, वसुकोऽसि ।
आर्यभाषाः अर्थ- (उदात्तेन) उदात्त के साथ जो (अनुदात्तस्य) अनुदात्त का ( एकादेशः ) एक आदेश है, वह (पदादावनुदात्ते) पदादि - अनुदात्त परे होने पर (वा) विकल्प हो ( स्वरितः ) स्वरित होता है। पक्ष में पूर्वसूत्र से प्राप्त उदात्त होता है । उदा०- सूत्थित, सूत्थितः ! बहुत उठा हुआ। वीक्षते, वीक्षते । वह विशेषत: देखता है। वसुकोऽसि, वसुकोऽस'! तू लघु व
है ।
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