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अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
४६१ स्वरविधि में नकार लोप असिद्ध हो जाता है, अत: 'अर्मे चावण व्यच् त्र्यच्' (६।२।९०) से पूर्वपद के अकारान्त न रहने से पूर्वपद को आधुदात्त स्वर नहीं होता है, अपितु समासस्य' (६।१।१२०) से अन्तोदात्त स्वर होता है-पञ्चार्मम् । ऐसे ही- दशार्मम् ।
(६) पञ्चदण्डी। पञ्चानां दण्डिनां समाहार इति पञ्चदण्डी।
यहां पञ्चन्' और दण्डिन्' शब्दों का तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' (२।१।५१) से समाहार अर्थ में द्विगुतत्पुरुष समास है। 'दण्डिन्' शब्द में 'अत इनिठनौ' (५।२।११५) से 'इनि' प्रत्यय है। नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य (८।२।७) से दण्डिन्' के नकार का लोप होता है। इस सूत्र से स्वरविधि में यह नकार लोप असिद्ध हो जाता है, अत: इगन्तकालकपालभगालशरावेष द्विगौ' (६।२।२९) से इगन्तत्व न रहने से पूर्वपद को प्रकृतिस्वर नहीं होता है, अपितु समासस्य (६।१।१२०) से अन्तोदात्त स्वर होता है-पञ्चदण्डी। द्विगो:' (४।१।२१) से स्त्रीलिङ्ग में 'डीप्' प्रत्यय है।
(७) पञ्च ब्राह्मण्यः । यहां पचन्' शब्द का नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य (८१२७) से नकार लोप हो जाने से 'ष्णान्ता षट् (१।१।२४) सं षट्-संज्ञा प्राप्त नहीं होती है। इस सूत्र से संज्ञाविधि में नकार लोप असिद्ध हो जाता है अत: षट्-संज्ञा हो जाती है और न षट्स्वस्त्रादिभ्यः (४।१।१०) से स्त्री-प्रत्यय का प्रतिषेध हो जाता है, 'अजाद्यतष्टाप (४।१।४) से 'टाप्' प्रत्यय प्राप्त होता था। ऐसे ही-दश ब्राह्मण्यः ।
(८) वृत्रहभ्याम् । वृत्रहन्+भ्याम् । वृत्रहo+भ्याम् । वृत्रहभ्याम् ।
यहां 'वत्रहन्' शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से 'भ्याम्' प्रत्यय है। नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२१७) से नकार का लोप होता है। पुन: 'हस्वस्य पिति कृति तुक्' (६।१।७०) से तुक् आगम प्राप्त होता है। वृत्रहन्' शब्द में ब्रह्मभूणवत्रेषु क्वि (३।२।८७) से 'क्विप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से तुग्विधि में नकार लोप असिद्ध हो जाता है, अत: ह्रस्वाभाव से तुक आगम नहीं होता है। ऐसे ही-वृत्रहभिः । असिद्धत्वप्रतिषेधः
(३) न मु ने।३। प०वि०-न अव्ययपदम्, मु १।१ ने ७।१। स०-मश्च उश्च एतयो: समाहार: मु (समाहारद्वन्द्व:)। अनु०-असिद्धमित्यनुवर्तते। अन्वय:-ने मु असिद्धं न। अर्थ:-नाऽऽदेशे कर्तव्ये मु-आदेशोऽसिद्धो न भवति, किं तर्हि सिद्ध
एव।
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