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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०- (सुब्विधिः ) राजभिः । तक्षभिः । राजभ्याम्। तक्षभ्याम्। राजसु । तक्षसु । (स्वरविधिः ) राजवती । पञ्चार्मम् । दशार्मम् । पञ्चदण्डी ! ( संज्ञाविधि :) पञ्च ब्राह्मण्यः । दश ब्राह्मण्यः । (तुग्विधि: ) वृत्रहभ्याम्, वृत्रहभिः । ४६० आर्यभाषाः अर्थ - ( सुपस्वरसंज्ञातुग्विधिषु कृति ) सुप्-विधि, स्वर - विधि, संज्ञा - विधि और कृत्-प्रत्यय विषय में तुक्-विधि करने में ( नलोपः) नकार का लोप ( असिद्ध: ) असिद्धवत् होता है । उदा०- (सुविधि) राजभिः । राजाओं के द्वारा । तक्षभिः । तक्षाओं के द्वारा । तक्षा=बढ़ई। राजभ्याम् । दो राजाओं के द्वारा । तक्षभ्याम् । दो तक्षाओं के द्वारा । राजसु । सब राजाओं में । तक्षसु । सब तक्षाओं में । (स्वरविधि) राजवती । राजावाली। पञ्चार्मम् । पांच ऊजड़ खेड़े। दशार्मम् । दश ऊजड़ खेड़े। पञ्चदण्डी । पांच दण्डीजनों का संग्रह | (संज्ञाविधि ) पञ्च ब्राह्मण्यः । पांच ब्राह्मणियां । दश ब्राह्मण्यः । दश ब्राह्मणियां | (तुग्विधि) वृत्रहभ्याम् । दो इन्द्रों के द्वारा । वृत्रहभिः । सब इन्द्रों के द्वारा । सिद्धि - (१) राजभिः । राजन्+भिस् । राज०+भिस् । राजभिस् । रजभिः । यहां 'राजन्' शब्द से 'स्वौजस०' (४|१/२) से 'भिस्' प्रत्यय है । 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' (८ 12 1७) से नकार का लोप होता है। राज+भिस्- इस स्थिति में 'अतो भिस ऐस' (७ 1१1९ ) से 'भिस्' को ऐस्' आदेश प्राप्त होता है। इस सूत्र से सुप्-विधि में नकार- लोप के असिद्ध होने से उक्त ऐस्' आदेश नहीं होता है। ऐसे ही 'तक्षन्' शब्द से - तक्षभिः । (२) राजभ्याम् । यहां नलोप के असिद्ध होने से 'सुपि च' (७ 1३ 1१०२ ) से अङ्ग को दीर्घ नहीं होता है। ऐसे ही - तक्षभ्याम् । (३) राजसु । यहां नलोप के असिद्ध होने से 'बहुवचने झल्येत्' (७ 1३ 1१०३) से अङ्ग को एकारादेश नहीं होता है। ऐसे ही - तक्षसु । राजन्+वत् । राज० + वत् । राजवत् + ङीप् । (४) राजवती । राजन् + मतुप् । राजवत् + ई | राजवती + सु । राजवती । यहां 'राजन्' शब्द से 'मतुप्' प्रत्यय है । 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य (८ 1२ 1७ ) से नकार का लोप होता है। स्त्रीत्व - विवक्षा में 'उगितश्च' (४|१|६ ) से 'ङीप्' प्रत्यय है । इस सूत्र से स्वरविधि में उक्त नकार लोप असिद्ध हो जाता है, अत: 'अन्तोऽवत्या: ' ( ६ । १ । २१४ ) से अन्तोदात्त स्वर नहीं होता है । (५) पञ्चार्मम् । यहां 'पञ्चन्' और 'अर्म' शब्दों का 'दिक्संख्ये संज्ञायाम्' (213140 ) से द्विगुतत्पुरुष समास है । पूर्ववत् नकार का लोप होता है। इस सूत्र से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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