________________
अष्टमाध्यायस्य द्वितीयः पादः
४८६ उदा०-अस्मा उद्धर। तू इसके लिये निकाल। द्वा अत्र। दो यहां हैं। असा आदित्यः । वह सूर्य है। अमुष्मै। उसके लिये। अमुष्मात् । उससे। अमुष्मिन् । उसमें।
सिद्धि-(१) अस्मा उद्धर । अस्मै+उद्धर। अस्माय+उद्धर। अस्माo+उद्धर। अस्मा उद्धर।
यहां एचोऽयवायावः' (६।११७६) से ऐकार के स्थान में 'आय' आदेश है। 'लोप: शाकल्यस्य' (८।३।१९) से यकार का लोप होता है। 'अस्मा+उद्धर' इस स्थिति में 'आद्गुणः' (६।१८४) से गुण रूप एकादेश प्राप्त होता है, वह यलोप के असिद्धवत् होने से नहीं होता है। ऐसे ही-द्वौ+अत्र-द्वा अत्र। असौ+आदित्यः असा आदित्यः। यहां 'अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।९८) से प्राप्त दीर्घरूप एकादेश नहीं होता है।
(२) अमुष्मै। अदस्+डे। अदस्+ए। अद अ+ए। अद+ए। अमु+ए। अमु+ स्मै। अमुस्मै।
यहां 'अदस्' शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से 'डे' प्रत्यय है। 'त्यदादीनाम:' (७/२।१०२) से अकार अन्तादेश, 'अतो गुणे (६।१।९५) से पररूप एकादेश और 'अदसोऽसेर्दादु दो म:' (८।२।८०) इस त्रिपादीय सूत्र से अकार को उकारादेश और दकार को मकारादेश होता है। इस त्रिपादीय कार्य के असिद्धवत् होने से 'सर्वनाम्न: स्मै (७।१।१४) से इसे 'अद+ए' ऐसा अकारान्त ही मानकर स्मै' आदेश किया जाता है। ऐसे ही डसि प्रत्यय में-अमुष्मात् । डि' प्रत्यय में-अमुष्मिन् । यहां पूर्वोक्त उत्व के असिद्ध होने से 'डसिड्यो: स्मास्मिनौ' (७।१।१५) से स्मात् और स्मिन् आदेश किये जाते हैं।
असिद्धत्वम्--
(२) नलोप: सुप्रवरसंज्ञातुग्विधिषु कृति।२। प०वि०-नलोप: ११ सुप्-स्वर-संज्ञा-तुग्विधिषु ७।३ कृति ७।१ ।
स०-नस्य लोप इति नलोप: (षष्ठीतत्पुरुषः)। सुप् च स्वरश्च संज्ञा च तुक् च ते सुप्स्वरसंज्ञातुक:, तेषाम्-सुप्स्वरसंज्ञातुकाम्, तेषां विधय इति सुप्स्वरसंज्ञातुग्विधयः, तेषु-सुप्स्वरसंज्ञातुग्विधिषु (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितषष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-असिद्धमित्यनुवर्तते। अन्वय:-सुप्स्वरसंज्ञाविधिषु तुग्विधौ च कृति नलोपोऽसिद्धः ।
अर्थ:-सुविधौ स्वरविधौ संज्ञाविधौ तुग्विधौ च कृति नलोपोऽसिद्धो भवति।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org