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सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः विशेष: तातड्' आदेश में डकार अनुबन्ध क्डिति च (१।१५) से गुण-वृद्धि प्रतिषेध के लिये है। अत: यहां डिच्च' (१।११५३) से अन्त्य-आदेश न होकर
अनेकाल्शित्सर्वस्य' (१।१।५५) से सवदिश होता है। वसु-आदेश:
(३६) विदेः शतुर्वसुः ।३६। प०वि०-विदे: ६ १ शतु: ६ ।१ वसुः १।१ । अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्य इत्यनुवर्तते। अन्वय:-विदेरङ्गाच्छतुः प्रत्ययस्य वसुः । अर्थ:-विदेरङ्गाद् उत्तरस्य शतृ-प्रत्ययस्य स्थाने वसुरादेशो भवति । उदा०-विद्वान् । विद्वांसौ। विद्वांसः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(विदे:) विद इस (अङ्गात्) अङ्ग से परे (शतुः) शतृ (प्रत्ययस्य) प्रत्यय के स्थान में (वसु) वसु आदेश होता है।
उदा०-विद्वान् । ज्ञानी। विद्वांसौ। दो ज्ञानी। विद्वांसः । सब ज्ञानी।
सिद्धि-(१) विद्वान् । विद्+लट् । विद्+शतृ। विद्+शप्+वसु। विद्+o+वस् । विद्वस्+सु। विद्वनुम् स्+स् । विद्वन्स्+स् । विद्वान्स्+स् । विद्वान्स्+० । विद्वान् । विद्वान्।
यहां विद ज्ञाने (अदा०प०) धातु से वर्तमाने लट्' (३।२।१२३) से लट्' प्रत्यय और लट: शतृशानचा०' (३।२।१२४) से लट' के स्थान में शतृ' आदेश है। इस सूत्र से 'शत' के स्थान में वसु' आदेश होता है। कर्तरि शप्' (३।१।६८) से शप्' विकरण-प्रत्यय, 'अदिप्रभृतिभ्य: शप:' (२।४।७२) से शप् का लुक्. सार्वधातुकमपित्' (१।२।४) से 'शतृ' के डित् होने से पुगन्तलघूपधस्य च (७।३।८६) से प्राप्त लघूपध गुण नहीं होता है। विद्वस्+सु' इस स्थिति में वसु' के उगित् होने से उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' (७।११७०) से नम्' आगम, सान्तमहत: संयोगस्य (६।४।१०) से नकार की उपधा को दीर्घ, हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात' (६।११६७) से सु' का लोप और 'संयोगान्तस्य लोपः' (८।२।२३) से सकार का लोप होता है। इस सकार-लोप के असिद्ध होने से नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य' (८।२।७) से नकार का लोप नहीं होता है।
(२) विद्वांसौ। यहां विद्वस्' शब्द से 'स्वौजस०' (४।१।२) से 'औ' प्रत्यय है। पूर्ववत् नुम्' आगम और इसके नकार को नश्चापदान्तस्य झलि' (८।३।२४) से अनुस्वार. (-) आदेश होता है। ऐसे ही 'जस्' प्रत्यय परे होने पर-विद्वांसः।
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