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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) जालौ। यहां 'ग्लै हर्षक्षये' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लिट्' प्रत्यय है। कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यास के गकार को चवर्ग जकार होता है। ऐसे ही 'म्लै हर्षक्षये' (भ्वा०प०) धातु से-मम्लौ । तातङादेश-विकल्प:
(३५) तुह्योस्तातङाशिष्यन्यतरस्याम्।३५ ।
प०वि०-तु-द्यो: ६।२ तातङ् ११ आशिषि ७१ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम्।
स०-तुश्च हिश्च तौ तुही, तयो:-तुह्योः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्य इति चानुवर्तते। अन्वय:-आशिषि अङ्गात् तुह्यो: प्रत्यययोरन्यतरस्यां तातङ् ।
अर्थ:-आशिषि विषयेऽङ्गाद् उत्तरयोस्तुद्यो: प्रत्यययो: स्थाने विकल्पेन तातङ् आदेशो भवति।
उदा०-(तुः) जीवताद् भवान्। जीवतु भवान्। (हि:) जीवतात् त्वम् । जीव त्वम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(आशिषि) आशीर्वाद विषय में (अङ्गात्) अङ्ग से परे (तुह्यो:) तु और हि इन (प्रत्यययो:) प्रत्ययों के स्थान में (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (तातङ्) तातङ् आदेश होता है।
उदा०-(तु) जीवताद् भवान् । जीवतु भवान् । आप जीवित रहें। (हि) जीवतात् त्वम् । जीव त्वम् । तू जीवित रह।
सिद्धि-(१) जीवतात् । जीव्+लोट् । जीव+ल। जीव+तिप्। जीव्+शप्+ति। जीव्+अ+तु । जीव्+अ+तातङ्। जीव्+अ+तात् । जीवतात्।
यहां जीव प्राणधारणे' (भ्वा०प०) धातु से 'आशिषि लिङ्लोटौं' (३।३।१७३) से आशीर्वाद अर्थ में लोट् प्रत्यय है। 'तिपतस्झि०' (३।४।७८) से लादेश तिप्' और 'एरु:' (३।४।८६) से तिप्' के इकार को उकार आदेश है-तु। इस सूत्र से तु' के स्थान में तातङ्' आदेश है। विकल्प-पक्ष में तातङ्' आदेश नहीं है-जीव ।
(२) जीवतात् । यहां पूर्वोक्त 'जीव' धातु से पूर्ववत् लोट्' और इसके स्थान में सिप्' आदेश है। सेपिच्च' (३।४।८७) से 'सिप' के स्थान में हि' आदेश होता है। इस सूत्र से 'हि' के स्थान में तातड्' आदेश होता है। विकल्प-पक्ष में तातङ्' आदेश नहीं है-जीव। अतो हे:' (६।४।१०५) से 'हि' का लुक हो जाता है।
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