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सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः सिद्धि-युष्माकम् । युष्मद्+आम्। युष्मद्+सुट्+आम्। युष्मद्+स्+आम् । युष्मद्+साम् । युष्मद्+आकम् । युष्म०+आकम्। युष्माकम् ।
यहां युष्मद्’ शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से षष्ठीविभक्ति का बहुवचन 'आम्' प्रत्यय है। इसे 'आमि सर्वनाम्न: सुट्' (७।१।५२) से 'सुट' आगम होता है। तत्पश्चात् सुट्-आगम सहित 'आम्' प्रत्यय (साम्) के स्थान में इस सूत्र से 'आकम्' आदेश होता है। शेषे लोपः' (७।२।९०) से दकार का लोप और 'अक: सवर्णे दीर्घः' (६।१।९९) से दीर्घरूप एकादेश है। ऐसे ही 'अस्मद्' शब्द से-अस्माकम् । औ-आदेशः
(३४) आत औ णलः ।३४। प०वि०-आत: ५ ।१ औ १।१ (सु-लुक्) णल: ६।१। अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्य इत्यनुवर्तते। अन्वय:-आतोऽङ्गाद् णल: प्रत्ययस्य औः ।
अर्थ:-आकारान्ताद् अङ्गाद् उत्तरस्य णल: प्रत्ययस्य स्थाने औकारादेशो भवति।
उदा०-स पपौ। स तस्थौ । सं जालौ। स मम्लौ।
आर्यभाषा: अर्थ-(आत:) आकारान्त (अङ्गात्) अग से परे (णल:) णल् (प्रत्ययस्य) प्रत्यय के स्थान में (औः) औकार आदेश होता है।
_उदा०-स पपौ। उसने पान किया। स तस्थौ। वह ठहरा। स जालौ। उसने ग्लानि की। स मम्लौ। उसने ग्लानि की।
सिद्धि-(१) पपौ। पा+लिट् । पा+तिम्। पा+णल। पा+औ। पौ। पा-पौ। प-पौ। पपौ।
___ यहां 'पा पाने' (भ्वा०प०) धातु से लिट्' प्रत्यय है। तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लादेश तिप्' और 'णल तुसुस्' (३।४।८२) से तिप्' के स्थान में ‘णल्' आदेश होता है। इस सूत्र से णल' के स्थान में औ' आदेश होता है। वृद्धिरेचि' (६।१९८५) से वृद्धिरूप एकादेश पौ' होकर पश्चात् द्विवचनेऽचि' (१।१।५८) से रूपातिदेश रूप स्थानिवद्भाव से 'पा-पौ' इस प्रकार 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से द्वित्व होता है। ह्रस्व:' (७।४५९) से अभ्यास को ह्रस्व है।
(२) तस्थौ । यहां छा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् लिट्' प्रत्यय है। 'शपूर्वा: खयः' (७।४।६१) से अभ्यास का खय्' वर्ण 'थ्' शेष रहता है। 'अभ्यासे चर्च (८।४।५४) से थकार को 'चर्' तकार होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
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