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________________ ४७६ पाणिनीय अष्टाध्यायी-प्रक्चनम् (कालोप) व्रीहिभिर्यजेत/यजेत । अथवा चावलों से यज्ञ करें। यवैर्यजेत/यजेत । अथवा जौओं से यज्ञ करे। सिद्धि- शुक्ला व्रीहयो भवन्ति । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, व्रीयः' पद से परवर्ती, 'च' शब्द का लोप होने पर प्रथमा भवन्ति' तिङन्त विभक्ति को इस सूत्र से सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है। अत: 'तास्यनुदात्तेन्डिददुपदेशाल्लसार्वधातुकमनुदात्तमन्हिवडो:' (६।१।१८०) से ल-सार्वधातुक को अनुदात्त करने पर धातु को उदात्त होकर आधुदात्त होता है। विकल्प-पक्ष में तिङ्ङतिङः' (८1१।२८) से 'भवन्ति पद सर्वानुदात्त होता है। ऐसे ही वालोप में-व्रीहिभिर्यजेत/यजेत। विशेष: यहां चलोप और अहलोप के उदाहरण दर्शाये हैं। हलोप अहलोप और एवलोप के उदाहरण यथाप्रयोग समझ लेवें। सर्वानुदात्तविकल्प: (४७) वैवावेति च च्छन्दसि।६४। प०वि०-वैवाव ११ (सु-लुक्) इति अव्ययपदम्, च अव्ययपदम्, छन्दसि ७१। __स०-वैश्च वावश्च एतयो: समाहार:-वैवाव। 'सुपां सुलुक' (७।१।३९) इत्यनेन सुलोपः। अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ्, न, योगे, प्रथमा, विभाषेति चानुवर्तते । __ अन्वय:-छन्दसि अपादादौ पदाद् वैवावेति योगे च प्रथमा तिङ् विभाषा सर्वानुदात्ता न। अर्थ:-छन्दसि विषयेऽपादादौ वर्तमाना पदात् परा वै वावेत्येतयोोगे च सति प्रथमा तिङ्विभक्तिर्विकल्पेनाऽनुदात्ता न भवति । उदा०-(वैयोग:) अहर्वे देवानामासीद्रात्रिरसुराणाम् (तै०सं० १।५।९।२)। आसीत् । बृहस्पति देवानी पुरोहित आसीत्, शण्डामर्कावसुराणाम् (तै०सं० ६।४।१०।१) (आस्ताम्)। (वावयोग:) अयं वाव हस्त आसीत् (काठ०सं० ३६ ॥७) । नेतर आसीत्। ___ आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (वैवाव) वै, वाव (इति) इन शब्दों का (योगे) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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