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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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'न चवाहाहैवयुक्ते' ( ८1१ 1 २४ ) इस सूत्र में जो च- आदि शब्द निर्दिष्ट हैं वे ही यहां चादि - वचन से ग्रहण किये जाते हैं।
सिद्धि-देवदत्तः पचति च खादेति च । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, गति - संज्ञक शब्द से भिन्न देवदत्त' पद से परवर्ती तिङन्त पचति' पद को 'च' शब्द परे होने पर इस सूत्र से सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है। ऐसे ही- देवदत्तः पर्चति वा खादेति वा आदि ।
सर्वानुदात्तप्रतिषेधः
(४२) चवायोगे प्रथमा । ५६ ।
प०वि० - च - वायोगे ७ । १ प्रथमा १ । १ ।
स०-चश्च वाश्च तौ चवौ, ताभ्यां चवाभ्यां योग इति चवायोगः, तस्मिन्-चवायोगे (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भिततृतीयातत्पुरुषः ) ।
अनु० - पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ् नेति चानुवर्तते ।
अन्वयः - अपादादौ पदाच्चवायोगे प्रथमा तिङ् सर्वाऽनुदात्ता न । अर्थ:-अपादादौ वर्तमानापदात् परा चवाभ्यां योगे सति प्रथमा तिविभक्ति: सर्वाऽनुदात्ता न भवति ।
उदा०- (चयोगः ) स गर्दभाँश्च कालयति, वीणां च वादयति । (वायोगः ) स गर्दभान् वा कालयति, वीणां वा वा॒दयत ।
आर्यभाषा: अर्थ - (अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (चवायोगे) च और वा का योग होने पर (प्रथमा) प्रथमा ( तिङ् ) तिङ् - विभक्ति (सर्वानुदात्ता) सर्वानुदात्त (न) नहीं होती है।
उदा०
- (चयोगः ) स गर्दभाँश्च कालयति, वीणां च वादयति । वह गदहों को गिनता है और वीणा बजाता है। (वायोगः ) स गर्दभान् वा कालयति, वीणां वा वादयति । वह गदहों को गिनता है अथवा वीणा बजाता है।
सिद्धि-स गर्दभाँश्च कालयति, वीणां च वादयति । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, 'च' पद से परवर्ती और इसके योग में तिङन्त प्रथमा विभक्ति 'कालयति' सर्वानुदात्त नहीं होती है। ऐसे ही 'वा' के योग में-स गर्दभान् वा कालयति, वीणां वा वादयति ।
यहां प्रथम तिङन्त पद के सर्वानुदात्त का प्रतिषेध है, द्वितीय तिङन्त पद को 'तिङ्ङतिङ : ' ( ८1१।२८) से सर्वानुदात्त होता है ।
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