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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-शवचनम् (३) देवदत्त: पर्चतिकल्पम् । यहां ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः' (५ १३।६७) से ईषदसमाप्ति ईषत्-असम्पूर्णता अर्थ में तद्धित-संज्ञक कल्पप्' प्रत्यय है। ऐसे ही-पतिरूपम् । यहां प्रशंसायां रूपए (५।३।६६) से तद्धित-संज्ञक रूपप्' प्रत्यय है।
(४) देवदत्त: पर्चति पचति । यहां नित्यवीप्सयो:' (८1१।४) से नित्य-अर्थ में 'पचति' शब्द को द्विवचन होता है। तस्य परमामेडितम्' (८1१।२) से परवर्ती पचति' शब्द की आमेडित संज्ञा है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। सर्वानुदात्तप्रतिषेधः
(४१) चादिषु च।५८। प०वि०-च-आदिषु ७।३ च अव्ययपदम्। स०-च आदिर्येषां ते चादय:, तेषु-चादिषु (बहुव्रीहिः)।
अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ्, न, अगतेरिति चानुवर्तते।
अन्वय:-अपादादावगते: पदाच्चादिषु च तिङ् पदं सर्वमनुदात्तं न।
अर्थ:-अपादादौ वर्तमानं गतिवर्जितात् पदात् परं चादिषु शब्देषु परतश्च तिङन्तं पदं सर्वमनुदात्तं न भवति। न चवाहाहैवयुक्ते' (८।१।२४) इत्यत्र ये चादय: शब्दा निर्दिष्टास्ते एवात्र गृह्यन्ते। उदाहरणम्परत: | उदाहरणम्
भाषार्थ: (१) च | देवदत्त: पचति च खादति च देवदत्त पकाता है और खाता है। (२) वा देवदत्त: पचति वा खादति वा | देवदत्त पकाता है अथवा खाता है।
ह देवदत्त: पचति ह खादति ह । देवदत्त निश्चित पकाता है और निश्चित खाता है। (४) अह | देवदत्त: पर्चत्यह खादैत्यह आश्चर्य है देवदत्त पकाता है, आश्चर्य है खाता है। (५) एव | देवदत्त: पचैत्येव खादैत्येव देवदत्त पकाता ही है, खाता ही है।
आर्यभाषा: अर्थ-(अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, (अगते:) गति-संज्ञक से भिन्न (पदात्) पद से परवर्ती, (चादिषु) च-आदि शब्दों के परे होने पर (च) भी (तिङ्) तिङन्त (पदम्) पद को (सर्वमनुदात्तम्) सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
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