________________
४६६
-
-
अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः अन्वय:-अपादादावगते: पदाच्चनचिदिवगोत्रादितद्धितामेडितेषु तिङ् पदं सर्वमनुदात्तं न।
अर्थ:-अपादादौ वर्तमानं गतिवर्जितात् पदात् परं चनचिदिवगोत्रादितद्धितामेडितेषु परतस्तिङन्तं पदं सर्वमनुदात्तं न भवति । उदाहरणम्परत:
। उदाहरणम् | भाषार्थ: (१) चन देवदत्त: पचति चन देवदत्त अल्प पकाता है। (२) चित् | देवदत्त: पचति चित् देवदत्त अच्छा पकाता है। (३) इव देवदत्त: पचतीव | देवदत्त पकाता-सा है। (४) गोत्रादि देवदत्त: पर्चति गोत्रम् देवदत्त अपने गोत्र को प्रसिद्ध करता है।
| देवदत्त: पचति ब्रुवम् देवदत्त निन्दित पकाता है।
| देवदत्त: पचति प्रवचनम् | देवदत्त अपने अध्यापन की प्रसिद्धि करता है। (५) तद्धितः । देवदत्त: पचति कल्पम् देवदत्त कुछ कम पकाता है।
| देवदत्त: पचति रूपम् देवदत्त प्रशस्त पकाता है। (६) आमेडितम् | देवदत्त: पचति पचति । देवदत्त पुन:-पुन: पकाता है।
आर्यभाषा: अर्थ-(अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (अगते:) गति-संज्ञक से भिन्न (पदात्) पद से परवर्ती (चन०) चन, चित्, इव, गोत्रादि, तद्धितप्रत्यय और आमेडित परे होने पर (तिङ्) तिङन्त (पदम्) पद (सर्वमनुदात्तम्) सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) देवदत्तः पर्चति चन। यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, गति-संज्ञक से भिन्न देवदत्त' पद से परवर्ती तिङन्त पचति' पद को चन' शब्द से परे इस सूत्र से सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है। ऐसे ही-देवदत्त: पचति चित, देवदत्त: पचतीव।
(२) देवदत्त: पचति गोत्रम्। यहां तिङो गोत्रादीनि कुत्सनाभीक्ष्ण्ययो:' (८।१।२७) इस परिभाषा से कुत्सन (निन्दा) और आभीक्ष्ण्य (पुन:-पुनर्भाव) अर्थ में ही सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है। कोई भोजन आदि की प्राप्ति हेतु अपने गोत्र को पकाता है, उसे प्रसिद्ध करता है, यह उसकी निन्दा है। ऐसे ही-देवदत्त: पर्चति ब्रुवम् । देवदत्त निन्दित पकाता है। देवदत्त: पर्चति प्रवचनम्। देवदत्त अपने प्रवचन-अध्यापन को पकाता है, प्रसिद्ध करता है। अपने अध्यापन कार्य की स्वयं प्रसिद्धि करना निन्दनीय है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org