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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
'कालयति' पद में 'कल गतौ संख्याने च (चु०प०) धातु से चौरादिक णिच्' प्रत्यय है। सनाद्यन्ता धातव:' ( ३।१।३२ ) से णिजन्त 'कालि' शब्द की धातु संज्ञा है अत: यह 'धातो:' ( ६ । १ । १६२ ) से अन्तोदात्त होता है । कर्तरि शप्' (३११/६८) से 'शप्' विकरण- प्रत्यय है। यह 'अनुदात्तौ सुपितों (३|१|४) से अनुदात्त है । 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८/४ / ६६ ) से इसे स्वरित होता है।
सर्वानुदात्तप्रतिषेधः
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(४३) हेति क्षियायाम् । ६० ।
प०वि०-ह अव्ययपदम्, इति अव्ययपदम्, क्षियायाम् ७ । १ । अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ् न, योगे, प्रथमेति चानुवर्तते ।
अन्वयः - अपादादौ पदाद् ह इति योगे क्षियायां प्रथमा तिङ् सर्वानुदात्ता न ।
अर्थ:- अपादादौ वर्तमाना पदात् परा ह इत्यनेन योगे सति क्षियायां गम्यमानायां प्रथमा तिविभक्ति: सर्वानुदात्ता न भवति ।
उदा० - स स्वयं ह रथेन याति३ उपाध्यायं पदातिं गमयति । स स्वयं हौदनं भुङ्क्ते॑३ उपाध्यायं सक्तून् पाययति॒।
आर्यभाषा: अर्थ - (अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (ह इति) ह इस शब्द के (योगे) संयोग में (क्षिया) निन्दा अर्थ की अभिव्यक्ति में (प्रथमा) प्रथमा (तिङ) तिङ् - विभक्ति (सर्वानुदात्ता) सर्वानुदात्त (न) नहीं होती है।
उदा० - स स्वयं ह रथेन याति३ उपाध्यायं पदातिं गमयति । वह स्वयं तो रथ से जाता है और उपाध्याय जी को पैदल भेजता है । स स्वयं हौदनं भुङ्क्ते॑३ उपाध्यायं सक्तून् पाययति॒। वह स्वयं तो चावल खाता है और उपाध्याय जी को सत्तू पिलाता है। सिद्धि-स स्वयं ह रथेन याति३ उपाध्यायं पदातिं गमयति । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, 'रथेन' पद से परवर्ती, ह-शब्द के योग में तथा क्षिया अर्थात् आचार- उल्लङ्घन स्वरूप निन्दा अर्थ की अभिव्यक्ति में प्रथमा तिङन्त 'याति' पद को इस सूत्र से सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है। अत: पूर्वोक्त यथाप्राप्त स्वर होता है। ऐसे ही - स स्वयं हौदनं भुङ्क्ते॑३ उपाध्यायं सक्तून् पा॒यय॒ति॒ ।
याति और भुङ्क्ते पदों में क्षियाशीः प्रेषेषु तिङाकाङ्क्षम् ( ८1२1१०४ ) से स्वरित प्लुत होता है ।
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