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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः
४६७ (अनन्तिके) अति निकट से भिन्न विषय में (आमन्त्रितम्) आमन्त्रितान्त (पदम्) पद (सर्वमनुदात्तम्) सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है।
उदा०-आम् पचसि देवदत्त ! हां! देवदत्त ! तू पकाता है। आम भो देवदत्त! हां रे ! देवदत्त ! तू पकाता है।
सिद्धि-(१) आम् पचासे देवदत्त! यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, आम् पद से परवतो, पचसि इस एक पद के अन्तरवाला, आमन्त्रितान्त देवदत्त' पद को इस सूत्र से सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है। अत: 'आमन्त्रितस्य च' (६।१।१९२) से आधुदात्त स्वर होता है।
(२) आम भो देवदत्त! यहां 'भोः' और देवदत्त' दोनों पद आमन्त्रितान्त है। अत: आमन्त्रितं पूर्वसविद्यमानवत (८।११७२) से पूर्ववर्ती 'भोः' पद को अविद्यमानवद्भाव होने से उत्तरवर्ती आमन्त्रितान्त देवदत्त' शब्द एकपदान्तरित नहीं रहता है। अत: नामन्त्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम् (८।१।७३) से अविद्यमानवद्भाव का प्रतिषेध होने से एकपदान्तरितत्व बना रहता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: नैव वा पुनरत्रैकश्रुत्यं प्राप्नोति । कि कारणम् ? अनन्तिक इत्युच्यते। अन्यच्च दूरमन्यदनन्तिकम् । यद्येवं प्लुतोऽपि ताहे न प्राप्नोतेि, प्लुतोऽपि दूराद् इत्युच्यते। इष्ट मेवैत संग्रहीतम्- 'आम् भो देवदत्त इत्येव भवितव्यम् ।
(महाभाष्यम् ८।१४५५)। अर्थ-यहां एकश्रुति स्वर प्राप्त नहीं होता है। क्या करण है ? सूत्रपाठ में 'अनन्तिके' यह कहा गया है। दूर अन्य होता है और अनन्तिक अन्य होता है। अनन्तिक का अर्थ है-न बहुत निकट न दूर। एकश्रुति दूरात सम्बुद्धी (१।२।३३) से दूर से सम्बोधन करने में एकश्रुति स्वर होता है, अनन्तिक से नहीं। यदि ऐसी बात है तो यहां प्लुत भी प्राप्त नहीं होता है क्योंकि प्लुत भी दराद्धृते च' (८।२१८४) से दूर से आहूत करने में प्लुत होता है, अनन्तिक से नहीं। अत. पाणिनि मुनि ने ठीक ही यहां अनन्तिके' पद ग्रहण किया है अत: आम्' भो देवदत्त यही प्रयोग होना चाहिये।
काशिकावांते में इस महाभाष्य-वचन के विरुद्ध यहां प्लुत उदाहरण दिया हैआम् भो देवदत्त३। सर्वानुदात्तप्रतिषेधः
(३६) यद्धितुपरं छन्दसि।५६ । प०वि०-यत्-हि-तुपरम् ११ छन्दसि ७।१।
स०-यच्च हिश्च तुश्च ते-यद्धितवः, यद्धितव: परे यस्मात् तत्-यद्धितुपरम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः)। "
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