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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-आगच्छ देवदत्त ! ग्रामं प्रविश। आगच्छ देवदत्त ! ग्राम प्रविश। आगच्छ देवदत्त ! ग्रामं प्रशाधि। आगच्छ देवदत्त ! ग्राम प्रशाधि।
. आर्यभाषा: अर्थ-(अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (गत्यर्थलोटा) गत्यर्थक धातुओं के लोट् प्रत्यय से (युक्तम्) संयुक्त (सोपसर्गम्) उपसर्गरहित (अनुत्तमम्) उत्तमपुरुष से भिन्न (लोट्) लृट्-प्रत्ययान्त (तिङ्) तिङन्त (पदम्) पद (विभाषितम्) विकल्प से (सर्वमनुदात्तम्) सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है, (चेत्) यदि (कारकम्) कर्ता और कर्म कारक (सर्वान्यत्) सारा अन्य (न) न हो, अर्थात् जिस कर्ता वा कारक में लोट् है, उसी कारक में यदि लोट् हो।
___उदा०-आगच्छ देवदत्त ! ग्रामं प्रविश । आगच्छ देवदत्त ! ग्रामं प्रविश । हे देवदत्त ! आ, तू ग्राम में प्रवेश कर। आगच्छ देवदत ! प्रामं प्रशाधि । आगच्छ देवदत्त ! ग्रामं प्रशोधि । हे देवदत्त ! आ, तू ग्राम पर प्रशासन कर।
सिद्धि-आगच्छ देवदत्त ! ग्रामं प्रविश । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, ग्रामम् पद से परवर्ती, गत्यर्थक गम' धातु के लोट् लकार के आगच्छ' पद से संयुक्त प्र-उपसर्ग सहित तथा उत्तमपुरुष से रहित लोट्-प्रत्ययान्त तिङन्त प्रविश' पद को इस सूत्र से सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है। अत: 'प्र' को तिङि चोदात्तवति (८।१७१) से सर्वानुदात्त=निघात स्वर और विश् धातु से लोट् लकार में तुदादिभ्यः श:' (३।१७७) से 'श' विकरण-प्रत्यय और 'अतो हे:' (६।४।१०५) से हि (सिप) का लोप हो जाने पर प्रविश’ पद में विश' को सर्वानुदात्त होकर उपसर्गाश्चाभिवर्जम्' (फिट० ४।१३) से 'प्र' उपसर्ग के उदात्त होने से उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६६) से स्वरित होता है-प्रविश । ऐसे ही-आगच्छ देवदत्त ! ग्रामं प्रशाधि/प्रशोधि । सर्वानुदात्तविकल्प:
(३७) हन्त च ५४। प०वि०-हन्त अव्ययपदम्, च अव्ययपदम्।
अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ्, न, युक्तम्, लोट्, विभाषितम्, सोपसर्गम्, अनुत्तममिति चानुवर्तते। गत्यर्थलोटेति च निवृत्तम्।
अन्वय:-अपादादौ पदाद् हन्त युक्तं च सोपसर्गमऽनुत्तमं लोट् तिङ् पदं विभाषितं सर्वमनुदात्तं न।
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