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________________ ४५१ अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः सिद्धि-यावत् पचति शोभनम् । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, यावत् पद से परवर्ती तथा इस संयुक्त पचति' पद पूजा विषय में इस सूत्र से सर्वानुदात्त ही होता है। ऐसे ही-यावत् करोति चारु । यथा पचति शोभनम् । यथा करोति चारु । अनुदात्तमेव (२१) उपसर्गव्यपेतं च ।३८॥ प०वि०-उपसर्गव्यपेतम् ११ च अव्ययपदम् । स०-व्यपेतम् व्यवहितमित्यर्थ: । उपसर्गेण व्यपेतमिति उपसर्गव्यपेतम् (तृतीयातत्पुरुषः)। __अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ्, न, निपातै:, युक्तम्, यावद्यथाभ्याम्, पूजायाम्, न, अनन्तरमिति चानुवर्तते।' अन्वय:-अपादादौ पदाद् निपाताभ्यां यावद्यथाभ्यां युक्तमनन्तरं उपसर्गव्यपेतं च तिङ् पदं पूजायां न सर्वमनुदात्तं न। अर्थ:-अपादादौ वर्तमानं पदात् परं निपाताभ्यां यावद्यथाभ्यां युक्तमनन्तरं उपसर्गव्यपेतं च तिङन्तं पदं पूजायां विषये न सर्वमनुदात्तं न भवति, अनुदात्तमेव भवतीत्यर्थः । उदा०-(यावत्) यावत् प्रपचति शोभनम् । यावत् प्रकरोति चारु । (यथा) यथा प्रपचति शोभनम् । यथा प्रकरोति चारु। आर्यभाषा: अर्थ- (अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (निपाताभ्याम्) निपात-संज्ञक (यावद्यथाभ्याम्) यावत् और यथा इन शब्दों से (युक्तम्) संयुक्त (अनन्तरम्) व्यवधान से रहित (च) और (उपसर्गव्यपेतम्) उपसर्ग से व्यवहित (तिङ्) तिङन्त (पदम्) पद (पूजायाम्) पूजा विषय में (न सर्वमनुदात्तम्) नहीं सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है, अर्थात् सर्वानुदात्त ही होता है। उदा०-(यावत्) यावत् प्रपचति शोभनम् । वह जितना प्रकृष्ट पकाता है, सोहणा पकाता है। यावत् प्रकरोति चारु । वह जितना प्रकष्ट करता है, सुन्दर करता है (बनाता है)। (यथा) यथा प्रपचति शोभनम् । वह जैसा प्रकृष्ट पकाता है, सोहणा पकाता है। यथा प्रकरोति चारु । वह जैसा प्रकृष्ट करता है, सुन्दर करता है। सिद्धि-यावत् प्रपचति शोभनम् । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, यावत् पद से परवर्ती तथा इससे संयुक्त, व्यवधान से रहित और 'प्र' उपसर्ग से व्यवहित 'पचति' पद पूजा विषय में इस सूत्र से सर्वानुदात्त ही होता है। ऐसे ही-यावत् प्रकरोति चारु । यथा प्रपचति शोभनम् । यथा प्रकरोति चारु । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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