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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
सिद्धि-यावद् भुङ्क्ते । यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, 'यावत्' पद से परवर्ती तथा इससे संयुक्त तिङन्त 'भुङ्क्ते' पद इस सूत्र से सर्वानुदात्त नहीं होता है । अत: 'तास्यनुदात्तेन्०' (६।१।१८६) से 'त' प्रत्यय अनुदात्त है और 'श्नम् ' प्रत्ययस्वर से उदात्त है 'श्नसोल्लोप:' ( ६ । ४ । १११ ) से 'श्नम्' के अकार का लोप होने से 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोप:' ( ६ । १ । १६२ ) से 'त' प्रत्यय आद्युदात्त होता है। ऐसे ही - यावदधीते । देवदत्तः पचति यावत् । यहां परवर्ती 'यावत्' शब्द के योग में भी सर्वानुदात्त का प्रतिषेध है । 'शप्' प्रत्यय के 'पित्' होने से 'अनुदात्तौ सुप्पितौं' (३1१1४ ) से अनुदात्त और इसे 'उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६६) से इसे स्वरित हो जाता है। ऐसे ही 'यथा भुङ्क्ते' आदि ।
अनुदात्तमेव
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(२०) पूजायां नानन्तरम् । ३७ ।
प०वि० - पूजायाम् ७ । १ न अव्ययपदम् अनन्तरम् १ ।१ । स०-न विद्यतेऽन्तरं यस्मिंस्तत्- अनन्तरम् (बहुव्रीहि: ) अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ् न, निपातैः, युक्तम्, यावद्यथाभ्यामिति चानुवर्तते ।
अन्वयः - अपादादौ पदाद् निपाताभ्यां यावद्यथाभ्यां युक्तं तिङ् पदं अनन्तरं पूजायाम्, न सर्वमनुदात्तं न ।
अर्थ :- अपादादौ वर्तमानं पदात् परं निपाताभ्यां यावद्यथाभ्यां युक्तमनन्तरं तिङन्तं पदं पूजायां विषये न सर्वमनुदात्तं न भवति, अनुदात्तमेव भवतीत्यर्थः ।
उदा०- ( यावत्) यावत् पचति शोभनम् । यावत् करोति चारु । ( यथा ) यथा पचति शोभनम् । यथा करोति चारु ।
आर्यभाषा: अर्थ- (अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (निपाताभ्याम्) निपात- संज्ञक (यावद्यथाभ्याम्) यावत् और यथा इनसे (युक्तम्) संयुक्त (अनन्तरम्) व्यवधानरहित ( तिङ् ) तिङन्त ( पदम् ) पद ( पूजायाम्) पूजा विषय में ( न सर्वमनुदात्तम्) नहीं सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है अर्थात् सर्वानुदात्त ही होता है। - (यावत्) यावत् पचति शोभनम् । वह जितना पकाता है, सोहणा पकाता है । यावत् करोति चारु । वह जितना करता है, सुन्दर करता है ( बनाता है) । (यथा ) यथा पचति शोभनम् । वह जैसा पकाता है, सोहणा पकाता है। यथा करोति चारु । वह जैसे करता है, सुन्दर करता है ।
उदा०
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