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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः (३) अजा ह्यग्नेरजनिष्ट गर्भात सा वाऽपश्यज्जनितारमग्रे। यहां 'अजनिष्ट' और 'अपश्यत्' दोनों तिङन्त पद हि' निपात से संयुक्त हैं और साकाङ्क्ष भी हैं। अर्थ यह है-क्योंकि अजा (प्रकृति) अग्नि के गर्भ से उत्पन्न हुई और उसने अपने जनक को प्रथम देखा। इस सूत्रवचन से प्रथम 'अजनिष्ट' पद को निघात का प्रतिषेध होता है और द्वितीय 'अपश्यत्' को नहीं।
_ 'अजनिष्ट' पद में 'जनी प्रादुर्भावे' (भ्वा०आ०) धातु से 'लुङ्' प्रत्यय और 'अपश्यत्' पद में 'दशिर प्रेक्षणे' (भ्वा०प०) धातु से लङ्' प्रत्यय है। 'पाघ्राध्मा०' (७।३।७८) से 'दृश्' के स्थान में पश्य’ आदेश होता है। सर्वानुदात्तप्रतिषेधः
(१६) यावद्यथाभ्याम् ।३६ । प०वि०-यावत्-यथाभ्याम् ५।२।
स०-यावच्च यथाश्च तौ यावद्यथौ, ताभ्याम्-यावद्यथाभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, तिङ्, न, निपातै:, युक्तमिति चानुवर्तते।
अन्वय:-अपादादौ पदाद् निपाताभ्यां यावद्यथाभ्यां युक्तं तिङ् पदं सर्वमनुदात्तं न।
अर्थ:-अपादादौ वर्तमानं पदात् परं निपाताभ्यां यावद्यथाभ्यां युक्तं तिङन्तं पदं सर्वमनुदात्तं न भवति।
उदा०-(यावत्) यावद् भुङ्क्ते । यावधीते । देवदत्त: पचति यावत् । (यथा) यथा भुङ्क्ते । यथा अधीते। देवदत्त: पचति यथा।
आर्यभाषा: अर्थ-(अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (निपाताभ्याम्) निपात-संज्ञक (यावद्यथाभ्याम्) यावत् और यथा शब्दों से परे (तिङ्) तिङन्त (पदम्) पद (सर्वमनुदातम्) सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है।
उदा०-(यावत्) यावद् भुङ्क्ते । वह जितना खाता है। यावदधीते । वह जितना अध्ययन करता है। देवदत्त: पचति यावत् । देवदत्त जब तक पकाता है। (यथा) यथा भुङ्क्ते । वह जैसे खाता है। यथा अधीते । वह जैसे अध्ययन करता है। देवदत्त: पचति यथा। देवदत्त जैसे पकाता है।
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