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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०- ( अनेकम् ) अनृतं हि मत्तो वदति, पाप्मा एनं विपुनाति । अत्र तिङन्तद्वयमपि न निहन्यते । ( एकम् ) अग्निर्हि पूर्वमुदजयत् तमिन्द्रोऽनूदयजत् । तिङन्तद्वयमप्येतद् हिनिपातेन युक्तम्, अत्रैकम् 'उदजयत्' इत्याद्युदात्तम्, अपरञ्चानुदात्तम् । अजा ह्यग्नेरजनिष्ट गर्भात् सा वाऽअपश्यज्जनितारमग्रे (तै०सं० ४। २ । १० । ४) । अत्र 'अजनिष्ट' इत्याद्युदात्तम्, 'अपश्यत्' इति चानुदात्तम् ।
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आर्यभाषाः अर्थ- (छन्दसि ) वेदविषय में (अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (हि) हि इस ( निपातेन) निपात- संज्ञक शब्द से (युक्तम्) संयुक्त (अनेकम्, अपि) एक तथा अनेक भी ( साकाङ्क्षम् ) व्यपेक्षा सह (तिङ् ) तिङन्त (पदम् ) पद (सर्वमनुदात्तम् ) सर्वानुदात्त (न) नहीं होता है। 'अनेकमपि' का तात्पर्य यह है कि कभी एक तिङन्त पद और कभी अनेक तिङन्त पद ।
उदा०- - ( अनेक) अनृतं हि मत्तो वदति, पाप्मा एनं विपुनाति । यहां अनेक=दोनों तिङन्तपदों को सर्वानुदात्त नहीं होता है। (एकम् ) अग्निर्हि पूर्वमुदजयत् तमिन्द्रोऽनूदयजत् । यहां दोनों तिङन्त पद 'हि' इस निपात से संयुक्त हैं। इनमें एक 'उदजयत्' तिङन्त पद आद्युदात्त है और दूसरा 'अनूदजयत्' यह अनुदात्त है। अजा ह्यग्नेरजनिष्ट गर्भात् सा वाऽपश्यज्जनितारमग्रे ( तै०सं० ४ । २ । १० । ४ ) | यहां 'अजनिष्ट' यह तिङन्त पद आद्युदात्त है और दूसरा 'अपश्यत्' यह अनुदात्त है।
सिद्धि - (१) अनृतं हि मत्तो वदति, पाप्मा एनं विपुनाति । यहां वदति और विपुनाति ये दोनों तिङन्त पद हेतुहेतुमद्भाव होने से साकाङ्क्ष हैं और दोनों पद हि' निपात से संयुक्त है। अर्थ यह है- क्योंकि मत्त (पागल ) झूठ बोलता है अतः पाप्मा (पागलपन) उसे शुद्ध करता है अर्थात् वह मत्तता के कारण अनृत भाषण के दोष का भागी नहीं होता है । अत: 'वदति' पद आद्युदात्त और विपुनाति पद प्रत्यय स्वर से मध्योदात्त होता है। 'वि' उपसर्ग 'तिङि चोदात्तवति' (८ /१/७१ ) से निघात होता है।
(२) अग्निर्हि पूर्वमुदजयत् तमिन्द्रोऽनुदयजत् । यहां उदजयत् और अनूदजयत् दोनों तिङन्त पद 'हि' निपात से संयुक्त हैं और पूर्ववत् हेतुहेतुमद्भाव से साकाङ्क्ष हैं। अर्थ यह है- क्योंकि अग्नि ने पहले जय को प्राप्त किया और इन्द्र पश्चात् विजय को प्राप्त हुआ। यहां भी दोनों तिङन्त पद 'हि' निपात से संयुक्त हैं किन्तु इस सूत्रवचन से प्रथम तिङन्त पद ‘उदजयत्' को सर्वानुदात्त का प्रतिषेध होता है और दूसरा 'अनूदजयत्' पद 'तिङ्ङतिङ : ' ( ८1१।२८) से निघात होता है।
‘उदजयत्' पद में उत्-उपसर्गपूर्वक 'जिजये' (भ्वा०प०) धातु से 'लङ्' प्रत्यय है। 'लुङ्लङ्लृङ्क्ष्वडुदात्त:' (६।४।७१) से उदात्त अडागम होता है। अत: यह आदा है। अनूदजयत्। अनु और उत् उपसर्गपूर्वक 'जि' धातु से पूर्ववत् ।
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