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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (अस्मद्) षष्ठी-ग्रामो मम स्वं समीक्ष्यागत: । चतुर्थी-ग्रामो मह्यं दीयमानं समीक्ष्यागतः। द्वितीया-ग्रामो मां समीक्ष्यागत:, इत्यादिकम्।
__ आर्यभाषा: अर्थ-(अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (अनालोचने) चक्षुर्विज्ञान से भिन्न (पश्यार्थः) पश्यार्थक धातुओं से (युक्तयोः) संयुक्त (षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयो:) षष्ठी, चतुर्थी और द्वितीया विभक्ति में अवस्थित (युष्मदस्मदो:) युष्मद्, अस्मद् के (पदयो:) पदों के स्थान में (वाम्नावौ) वाम्, नौ आदि आदेश (न) नहीं होते हैं।
उदा०-(युष्मद्) षष्ठी-ग्रामस्तव स्वं समीक्ष्यागतः । ग्राम तेरा धन जानकर आया है। चतुर्थी-ग्रामस्तुभ्यं दीयमानं समीक्ष्यागत:। ग्राम तुझे दीयमान पदार्थ को जानकर आया है। द्वितीया-ग्रामस्त्वां समीक्ष्यागतः । ग्राम तुझे जानकर आया है। (अस्मद) षष्ठी-ग्रामो मम स्वं समीक्ष्यागत:। ग्राम मेरा धन जानकर आया है। चतुर्थी-ग्रामो मह्यं दीयमानं समीक्ष्यागत: । ग्राम मुझे दीयमान पदार्थ को जानकर आया है। द्वितीया-ग्रामो मां समीक्ष्यागतः । ग्राम मुझे जानकर आया है, इत्यादि।
सिद्धि-ग्रामस्तव स्वं समीक्ष्यागतः। यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, ग्राम पद से परे, अनालोचन दर्शन अर्थ से भिन्न पश्यार्थक (ज्ञानार्थक) 'ईक्ष' धातु से युक्त, षष्ठीविभक्ति में अवस्थित युष्मद्-पद के तव' के स्थान में इस सूत्र से सर्वानुदात्त ते' आदेश का प्रतिषेध होता है। इस प्रकार समस्त उदाहरणों की सिद्धियों की स्वयं ऊहा कर लेवें। उक्तादेशविकल्प:
(६) सपूर्वायाः प्रथमाया विभाषा।२६। प०वि०-सपूर्वाया: ५।१ प्रथमाया: ५।१ विभाषा ११ ।
स०-सह विद्यमानं पूर्वं यस्या: सा सपूर्वा, तस्या:-सपूर्वाया: । तिन सहेति तुल्ययोगे' (२।२।२८) इत्यनेन बहुव्रीहिसमास: । 'वोपसर्जनस्य (६ ॥३॥८०) इत्यनेन च सहस्य स्थाने सादेशः ।
अनु०-पदस्य, पदात्, अपादादौ, युष्मदस्मदोः, षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयो:, वाम्नावौ, न।
अन्वय:-अपादादौ सपूर्वाया: प्रथमाया: पदात् षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोर्युष्मदस्मदोर्वाम्नावौ विभाषा न।
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