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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
सर्वानुदात्त ते' आदेश होता है। चतुर्थी विभक्ति 'तुभ्यम्' में- ग्रामस्ते दीयते । ऐसे ही अस्मद् पद के षष्ठीविभक्ति 'मम' में- ग्रामो मे स्वम् । चतुर्थी विभक्ति 'तुभ्यम्' में- ग्रामो मे दीयते ।
विशेष: आगामी सूत्र में द्वितीया विभक्ति में त्वा, मा आदेश का विधान किया गया है अत: यहां षष्ठी और चतुर्थी विभक्ति की अनुवृत्ति की जाती है, द्वितीया विभक्ति की नहीं ।
त्वामावादेशौ
(६) त्वामौ द्वितीयायाः । २३ ।
प०वि० -त्वामौ १।२ द्वितीयायाः ६ । १ ।
स०-त्वाश्च माश्च तौ त्वामौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ युष्मदस्मदो:, एकवचनस्येति चानुवर्तते ।
अन्वयः-अपादादौ पदाद् द्वितीयाया एकवचनयोर्युष्मदस्मदोः पदयोस्त्वामौ, सर्वौ चानुदातौ ।
अर्थः- अपादादौ वर्तमानयोः पदात् परयोर्द्वितीयास्थयोरेकवचनान्तयोर्युष्मदस्मदो: पदयोः स्थाने यथासंख्यं त्वामावादेशौ भवतः, तौ च सर्वानुदातौ
भवतः ।
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उदा०- (युष्मद्) द्वितीया - ग्रामस्त्वा पश्यति । (अस्मद् ) द्वितीया - ग्रामो मा पश्यति ।
आर्यभाषाः अर्थ - (अपादा५) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती ( द्वितीयास्थयोः) द्वितीया विभक्ति में अवस्थित ( एकवचनयो: ) एकवचनान्त (युष्मदस्मदोः) युष्मद्, अस्मद् (पदयोः) पदों के स्थान में यथासंख्य ( त्वामौ) त्वा, मा आदेश होते हैं और वे दोनों (सर्वो, अनुदात्तौ ) सर्वानुदात्त होते हैं।
उदा०
• (युष्मद्) द्वितीया - ग्रामस्त्वा पश्यति । यह ग्राम तुझको देखता है। (अस्मद् ) द्वितीया - ग्रामो मा पश्यति । यह ग्राम मुझको देखता है।
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सिद्धि - ग्रामस्त्वा पश्यति। यहां ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान, ग्राम, पद से परवर्ती, द्वितीया विभक्ति में अवस्थित, एकवचनान्त युष्मद्-पद के 'माम्' के स्थान में इस सूत्र से सर्वानुदात्त 'त्वा' आदेश होता है। ऐसे ही अस्मद् पद के एकवचनान्त 'माम्' के स्थान में 'मा' आदेश है-ग्रामो मा पश्यति ।
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