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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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सिद्धि - ग्रामो व: स्वम् । यहां पाद के आदि में अविद्यमान, ग्राम पद से परवर्ती, षष्ठीविभक्ति में अवस्थित, बहुवचनान्त युष्मद्- पद अर्थात् 'युष्माकम् ' के स्थान में इस सूत्र से 'वस्' सर्वानुदात्त आदेश होता है। 'ससजुषो रु' (८/२/६६ ) से सकार को रुत्व और इसे 'खरवसानयोर्विसर्जनीय:' ( ८1३ 1१५) से खर्लक्षण विसर्जनीयादेश है। चतुर्थी विभक्ति 'युष्मभ्यम्' में- ग्रामो वो दीयते । द्वितीया विभक्ति 'अस्मान् ' में- ग्रामो वः पश्यति । ऐसे ही अस्मद् शब्द से षष्ठीविभक्ति 'अस्माकम्' में ग्रामो नः स्वम् । चतुर्थी विभक्ति 'अस्मभ्यम्' में- ग्रामो नो दीयते । द्वितीया विभक्ति 'अस्मान्' में- ग्रामो नः पश्यति । तेमयावादेशौ
(५) तेमयावेकवचनस्य | २२ | प०वि० - ते - मयौ १२ एकवचनस्य ६ । १ । स०-तेश्च मेश्च तौ तेमयौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु० - पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, युष्मदस्मदो:, षष्ठीचतुर्थीस्थयोरिति चानुवर्तते ।
अन्वयः - अपादादौ पदात् षष्ठीचतुर्थीस्थयोरेकवचनयोर्युष्मदस्मदोः पदयोस्तेमयौ, सर्वौ चानुदातौ ।
अर्थ:- अपादादौ वर्तमानयोः पदात् परयोः षष्ठीचतुर्थीस्थयोरेकवचनान्तयोर्युष्मदस्मदोः पदयोः स्थाने यथासंख्य तेमयावादेशौ भवतः, तौ च सर्वानुदातौ भवतः ।
उदा०- (युष्मद्) षष्ठी - ग्रामस्ते स्वम् । चतुर्थी - ग्रामस्ते दीयते । ( अस्मद् ) षष्ठी - ग्रामो मे स्वम् । चतुर्थी ग्रामो मे दीयते ।
आर्यभाषाः अर्थ- (अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (षष्ठीचतुर्थीस्थयोः) षष्ठी, और चतुर्थी विभक्ति में अवस्थित (एकवचनयो:) एकवचनान्त (युष्मदस्मदोः) युष्मद्, अस्मद् के (पदयोः) पदों के स्थान में यथासंख्य (तमयौ) ते, मे आदेश होते हैं और वे दोनों (सर्वौ, अनुदात्तौ) सर्वानुदात्त होते हैं।
उदा०-1 -(युष्मद्) षष्ठी - ग्रामस्ते स्वम् । यह ग्राम तेरी सम्पत्ति है। चतुर्थी - ग्रामस्ते दीयते। यह ग्राम तेरे लिये दिया जाता है । (अस्मद् ) षष्ठी - ग्रामो मे स्वम् | यह ग्राम मेरी सम्पत्ति है। चतुर्थी - ग्रामो मे दीयते। यह ग्राम मेरे लिये दिया जाता है ।
सिद्धि - ग्रामस्ते॒ स्वम् । यहां पाद के आदि में अविद्यमान, ग्राम पद से परवर्ती, षष्ठीविभक्ति में अवस्थित, एकवचनान्त युष्मद्-पद 'तव' के स्थान में इस सूत्र से
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