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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-ग्रामो वां स्वम् । यहां पाद के आदि में अविद्यमान, ग्राम पद से परवर्ती, षष्ठीविभक्ति में अवस्थित, युष्मद्-पद अर्थात् युवयोः' के स्थान में इस सूत्र से वाम्' सर्वानुदात्त आदेश होता है। चतुर्थी विभक्ति युवाभ्याम् में-ग्रामो वां दीयते। द्वितीया विभक्ति युवाम् में-ग्रामो वां पश्यति । ऐसे ही अस्मद् शब्द से षष्ठीविभक्ति आवयोः' के स्थान में-ग्रामो नौ स्वम् । चतुर्थी विभक्ति 'आवाभ्याम्' में-ग्रामो नौ दीयते। द्वितीया विभक्ति 'आवाम्' में-ग्रामो नौ पश्यति । वस्नसावादेशौ
(४) बहुवचनस्य वस्नसौ।२१। प०वि०-बहुवचनस्य ६।१ वस्-नसौ १।२। स०-वस् च नस् च तौ वस्नसौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-पदस्य, पदात्, अनुदात्तम्, सर्वम्, अपादादौ, युष्मदस्मदो:, षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोरिति चानुवर्तते।
अन्वयः-अपादादौ पदात् षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोर्बहुवचनयोर्युष्मदस्मदो: पदयोर्वस्नसौ, सर्वो चानुदातौ।
अर्थ:-अपादादौ वर्तमानयो: पदात् परयो: षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोबहुवचनान्तयोर्युष्मदस्मदो: पदयो: स्थाने यथासंख्यं वस्नसावादेशौ भवतः, तौ च सर्वानुदात्तौ भवतः।
उदा०-(युष्मद्) षष्ठी-ग्रामो वः स्वम्। चतुर्थी-ग्रामो वो दीयते। द्वितीया-ग्रामो वः पश्यति । (अस्मद्) षष्ठी-ग्रामो न: स्वम् । चतुर्थी-ग्रामो नो दीयते । द्वितीया-ग्रामो न: पश्यति।
आर्यभाषा: अर्थ-(अपादादौ) ऋचा आदि के पाद के आदि में अविद्यमान (पदात्) पद से परवर्ती (षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयो:) षष्ठी, चतुर्थी और द्वितीया विभक्ति में अवस्थित (बहुवचनयोः) बहुवचनान्त (युष्मदस्मदो:) युष्मद्, अस्मद् के (पदयोः) पदों के स्थान में यथासंख्य (वस्नसौ) वस्, नस् आदेश होते हैं और वे दोनों (सर्वो, अनुदात्तौ) सर्वानुदात्त होते हैं।
उदा०-(युष्मद्) षष्ठी-ग्रामो वः स्वम् । यह ग्राम तुम सब की सम्पत्ति है। चतुर्थी-ग्रामो वो दीयते। यह ग्राम तुम सब को दिया जाता है। द्वितीया-ग्रामो वः पश्यति। यह ग्राम तुम सब को देखता है। (अस्मद्) षष्ठी-ग्रामो न: स्वम् । यह ग्राम हम सब की सम्पत्ति है। चतर्थी-ग्रामो नो दीयते । यह ग्राम हम सब को दिया जाता है। द्वितीया-ग्रामो न: पश्यति । यह ग्राम हम सब को देखता है।
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