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________________ अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः ४२७ पच्+अ+अन्त्+सु । इस स्थिति में 'हल्डयाब्भ्यो दीर्घात्०' (६।१।६८) से 'सु' का लोप होकर 'संयोगान्तस्य लोप:' ( ८ / २ / २३) से संयोगान्त पद के तकार का लोप होता है। ऐसे ही 'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा०उ०) धातु से यजन् । पदात्-अधिकारः (२) पदात् | १७ | वि०-पदात् ५।१। अर्थः-पदादित्यधिकारोऽयम्, प्राक् 'कुत्सने च सुप्यगोत्रादौ' (८ ।१ ।६९) इत्यस्मात् । यदितोऽग्रे वक्ष्यति 'पदात्' इत्येवं तद् वेदितव्यम् । यथा वक्ष्यति - 'आमन्त्रितस्य च ' ( ८ । १ । १९ ) इति । आमन्त्रितस्य पदस्य पदात् परस्याऽनुदात्तादेशो भवति । उदा० - पचसि देवदत्त ! आर्यभाषाः अर्थ- (पदात्) 'पदात्' यह अधिकार सूत्र है । 'कुत्सने च सुप्यगोत्रादौं (८ ।१ । ६९ ) इस सूत्र से पहले-पहले पदात्' का अधिकार है। पाणिनि मुनि जो इससे आगे कहेंगे वह 'पदात्' अर्थात् पद से परे जानें। जैसे कि पाणिनि मुनि कहेंगे 'आमन्त्रितस्य च' ( ८1१ 1 १९ ) अर्थात् पद से परे आमन्त्रित पद को अनुदात्त आदेश होता है। उदा० - पचसि देवदत्त ! हे देवदत्त तू पकाता है। सिद्धि - पचसि देवदत्त ! यहां 'पचसि' इस पद से परे देवदत्त आमन्त्रित पद को 'आमन्त्रितस्य च' (८।१।१९ ) से अनुदात्त स्वर होता है । {सर्वानुदात्तप्रकरणम्} अनुदात्त अधिकार: (१) अनुदात्तं सर्वमपादादौ । १८ । प०वि० - अनुदात्तम् १ । १ सर्वम् ११ अपादादौ ७ । १ । स०-पादस्याऽऽदिरिति पादादि:, न पादादिरिति अपादादि:, तस्मिन्-अपादादौ (षष्ठीगर्भितनतत्पुरुषः) । अनु० - पदस्य, पदादिति चानुवर्तते । अन्वयः-पदादपादादौ पदस्य सर्वमनुदात्तम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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