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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) व्युत्क्रमण-व्युत्क्रमण का अर्थ भेद अर्थात् पृथग् रहना है। दो वर्गों के सम्बन्ध से पृथग् रहनेवाले पुरुष द्वन्द्व व्युत्क्रान्त कहाते हैं, अर्थात् वे दो-दो वर्ग बनाकर पृथक् अवस्थित हैं।
(४) यज्ञपात्रप्रयोग-धीरपुरुष न्यग्भूत अधोमुख यज्ञपात्रों को दो-दो करके वेदि पर रखता है। एक स्फ्य और दूसरा कपाल।
(५) अभिव्यक्ति-नारद और पर्वत का द्वन्द्व है अर्थात् दोनों साहचर्य से अभिव्यक्त हुये। संकर्षण और वासुदेव का द्वन्द्व है अर्थात् दोनों साहचर्य से अभिव्यक्त हुये।
सिद्धि-द्वन्द्वम् । द्वि-द्वि। द् अम्-द् अ। द्वन्द्व+सु । द्वन्द्व+अम् । द्वन्द्वम्।
यहां रहस्य आदि अर्थों में द्वि' शब्द को द्विवचन, पूर्वपद को अम्भाव और उत्तरपद को अकारादेश निपातित है। कर्मधारयवद्भाव से 'समासस्य' (६।१।१२०) से अन्तोदात्त स्वर होता है-द्वन्द्वम् ।
।। इति द्विवचनप्रकरणम्।।
पदकार्यप्रकरणम् पदस्याधिकारः
(१) पदस्य।१६। वि०-पदस्य ६।१।
अर्थ:-पदस्येत्यधिकारोऽयम्, प्राक् ‘अपदान्तस्य मूर्धन्यः' (८।३ ।५५) इत्यपदान्ताधिकारात्। यदितोऽग्रे वक्ष्यति पदस्येत्येवं तद् वेदितव्यम् । यथा वक्ष्यति-'संयोगान्तस्य लोपः' (८।२।२३) इति।
उदा०-पचन्। यजन् ।
आर्यभाषाअर्थ-(पदस्य) पदस्य यह अधिकार सूत्र है, 'अपदान्तस्य मूर्धन्य:' (८।३।५५) इस अपदान्त-अधिकार से पहले-पहले 'पदस्य' का अधिकार है। पाणिनि मुनि जो इससे आगे कहेंगे वह 'पदस्य' अर्थात् पद के स्थान में जानें। जैसे कि पाणिनि मुनि 'संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) अर्थात् संयोगान्त पद का लोप होता है।
उदा०-पचन् । वह पकाता हुआ। यजन् । वह यज्ञ करता हुआ।
सिद्धि-पचन् । यहां डुपचष् पाके' (भ्वा०उ०) धातु से वर्तमाने लट् (३।२।१२३) से लट्' प्रत्यय है। लट: शतृशानचा०' (३ /२।१२४) से लकार के स्थान में 'शत' आदेश और कर्तरि शप' (३।१।६८) से शप्' विकरण-प्रत्यय और उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' (७।१।७०) से शतृ' को नुम्' आगम होता है। पच्+अ+अनुम्त् ।
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