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________________ अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः ४२५ स०-रहस्यं च मर्यादावचनं च व्युत्क्रमणं च यज्ञपात्रप्रयोगश्च अभिव्यक्तिश्च ता रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमणयज्ञपात्रप्रयोगाभिव्यक्तय:, तासु-रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमणयज्ञपात्रप्रयोगाभिव्यक्तिषु (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-द्वे, कर्मधारयवदिति चानुवर्तते। अन्वय:-रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमणयज्ञपात्रप्रयोगाभिव्यक्तिषु द्वन्द्वम्, द्वे, कर्मधारयवच्च। अर्थ:-रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमणयज्ञपात्रप्रयोगाभिव्यक्तिष्वर्थेषु द्वन्द्वमिति पदं निपात्यते, कर्मधारयवच्चात्र कार्यं भवति । द्वन्द्वमित्यत्र द्विशब्दस्य द्विवचनम्, द्विर्वचने कृते पूर्वपदस्याऽम्भाव उत्तरपदस्य चा त्वं निपात्यते। उदाहरणम् (१) रहस्यम्-ते द्वन्द्वं मन्त्रयन्ते । (२) मर्यादावचनम्-मर्यादा स्थित्यनतिक्रमः । आचतुरं हीमे पशवो द्वन्द्वं मिथुनयन्ति। माता पुत्रेण मिथुनं गच्छति, पौत्रेण, तत्पुत्रेणापीति मर्यादार्थः। (३) व्युत्क्रमणम्-व्युत्क्रमणं भेद:, पृथगवस्थानम् । द्विवर्गसम्बन्धेन पृथगवस्थिता द्वन्द्वं व्युत्क्रान्ता इत्युच्यन्ते। (४) यज्ञपात्रप्रयोग:-द्वन्द्वं न्यञ्चि यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति (द्र० आप०श्रौत० १।११।४)। (५) अभिव्यक्ति:-द्वन्द्वं नारदपर्वतौ । द्वन्द्वं संकर्षणवासुदेवौ। आर्यभाषा: अर्थ-(रहस्य०) रहस्य, मर्यादावचन, व्युत्क्रमण, यज्ञपात्रप्रयोग और अभिव्यक्ति अर्थ में (द्वन्द्वम्) द्वन्द्व यह पद निपातित है और यहां (कर्मधारयवत्) कर्मधारय समास के समान कार्य होता है। द्वन्द्व' इस पद में द्वि' शब्द को द्विवचन, द्विर्वचन करने पर पूर्वपद को अम् आदेश और उत्तरपद को अकारादेश निपातन से होता है। उदाहरण (१) रहस्य-वे द्वन्द्व अर्थात् दो-दो मिलकर रहस्य पर मन्त्रणा करते हैं। (२) मर्यादावचन-स्थिति का अतिक्रमण न करना मर्यादा कहाती है। ये पशु चार द्वन्द्व अर्थात् मर्यादा पर्यन्त मिथुन करते हैं। माता-पुत्र, पौत्र और उसके पुत्र के साथ मैथुन करती है। इतनी ही पशुओं की आयु है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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