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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-प्रियप्रियेण ददाति । यहां अकृच्छ्र अर्थ में प्रिय शब्द को इस सूत्र से द्विवचन होता है और कर्मवद्भाव होने से सुपो धातुप्रातिपदिकयो:' (२।४।७१) से 'टा' विभक्ति का लोप होता है। कृत्तद्धितसमासाश्च' (१।२।४६) से प्रातिपदिक संज्ञा होकर पुन: 'टा' प्रत्यय की उत्पत्ति होती है। विकल्प-पक्ष में द्विवचन नहीं है-प्रियेण ददाति । ऐसे ही-सुखसुखेन ददाति । सुखेन ददाति। निपातनम्
(१४) यथास्वे यथायथम् ।१४। प०वि०-यथास्वे ७१ यथायथम् १।१।
स०-यो य: स्व: आत्मा, यद्यद् आत्मीयं तद् यथास्वम्, तस्मिन् यथास्वे। 'यथाऽसादृश्ये (२।१७) इति वीप्सायामऽव्ययीभावसमास: ।
अनु०-द्वे, कर्मधारयवदिति चानुवर्तते।
अर्थ:-यथास्वेऽर्थे यथायथमिति निपात्यते, कर्मधारयवच्चाऽत्र कार्य भवति । यथाशब्दस्य द्विर्वचनं नपुंसकलिङ्गता च निपातनेन विधीयते।
उदा०-ज्ञाता: सर्वे पदार्था यथायथम् । यथास्वभावमित्यर्थः । सर्वेषां तु यथायथं ज्ञातम्। यथात्मीयमित्यर्थः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(यथास्वे) यथास्व अर्थ में (यथायथम्) यथायथ शब्द निपातित हैं (कर्मधारयवत्) और यहां कर्मधारय समास के समान कार्य होता है। यथा' शब्द को द्विवचन और नपुंसकलिङ्गता निपातन से होती है।
उदा०-ज्ञाता: सर्वे पदार्था यथायथम् । मैंने सब पदार्थों के स्वभाव को जान लिया है। सर्वेषां तु यथायथं ज्ञातम् । मैंने सब की आत्मीयता को जान लिया है।
. सिद्धि-यथायथम् । यहां यथा' शब्द को यथास्व अर्थ में द्विवचन और नपुंसकलिगता निपातित है। नपुंसकलिङ्ग होने से 'हस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य' (१/२ (४७) से ह्रस्वादेश होता है. कर्मवद्भाव होने से समासस्य' (६।१।१२०) से अन्तोदात्त स्वर होता है-यथायथम्। निपातनम्(१५) द्वन्द्वं रहस्यमर्यादावचनव्युत्क्रमणयज्ञपात्र
प्रयोगाभिव्यक्तिषु।१५।। प०वि०-द्वन्द्वम् १।१ रहस्य-मर्यादावचन-व्युत्क्रमण-यज्ञपात्रप्रयोगअभिव्यक्तिषु ७।३।
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