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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः
४२३ आर्यभाषा: अर्थ-(प्रकारे) सादृश्य अर्थ में विद्यमान (गुणवचनस्य) गुणवाची शब्द को द्वि) द्विवचन होता है और (कर्मधारयवत्) कर्मधारय समास के समान इसे कार्य होता है।
उदा०-पटुपटुः । पटु (चतुर) के सदृश। मृदुमदुः । मृदु (कोमल) के सदृश। पण्डितपण्डित: । पण्डित के सदृश।
सिद्धि-पटुपटुः । यहां 'पटु' शब्द को इस सूत्र से प्रकार (सदृश) अर्थ में (द्व) द्विर्वचन होता है। कर्मवद्भाव होने से 'सुपो धातुप्रतिपदिकयो:' (२।४।७१) से 'सु' का लोप होता है। कृत्तद्धितसमासाश्च' (१।२।४६) से प्रातिपदिक संज्ञा होकर पुन: 'सु' उत्पत्ति होती है। ऐसे ही-मृदुमदुः । पण्डितपण्डितः ।
प्रकार शब्द के भेद और सादृश्य ये दो अर्थ हैं। यहां सादृश्य अर्थ का ग्रहण किया जाता है। द्विर्वचन-विकल्प:
(१३) अकृच्छ्रे प्रियसुखयोरन्यतरस्याम् ।१३।
प०वि०-अकृच्छे ७।१ प्रिय-सुखयोः ६।२ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम्।
स०-कृच्छ्रम् दु:खम्। न कृच्छ्रमिति अकृच्छ्रम्, तस्मिन्-अकृच्छ्रे (नञ्तत्पुरुष:)। प्रियं च सुखं च ते प्रियसुखे, तयो:-प्रियसुखयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-द्वे, कर्मधारयवदिति चानुवर्तते। अन्वय:-अकृच्छ्रे प्रियसुखयोरन्यतरस्यां द्वे, कर्मधारयवच्च ।
अर्थ:-अकृच्छ्रे दु:खभावे द्योत्ये प्रियसुखयो: शब्दयोर्विकल्पेन द्विर्वचनं भवति, कर्मधारयवच्च तत्र कार्यं भवति।
उदा०-(प्रियम्) प्रियप्रियेण ददाति । प्रियेण ददाति। (सुखम्) सुखसुखेन ददाति। सुखेन ददाति। अत्यन्तदयितमपि वस्त्वनायासेन ददातीत्यर्थः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (अकृच्छ्रे) सुख अर्थ प्रकाशित होने पर (प्रियसुखयो:) प्रिय और सुख शब्दों को (अन्यतरस्याम् ) विकल्प से द्वि) द्विवचन होता है और (कर्मधारयवत्) वहां कर्मधारय समास के समान कार्य होता है।
उदा०-(प्रिय) प्रियप्रियेण ददाति । प्रियेण ददाति । वह अत्यन्त प्रिय वस्तु को भी आराम से प्रदान करता है। (सुख) सुखसुखेन ददाति । सुखेन ददाति। अर्थ पूर्ववत् है।
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