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________________ ४१७ ४१७ अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः अनु०-द्वे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-पादपूरणे प्रसमुपोदां द्वे। अर्थ:-पादपूरणेऽभिधेये प्रसमुपोदां शब्दानां द्वे भवतः । उदा०-(प्र) प्रप्रायमग्निर्भरतस्य शृण्वे (ऋ० ७।८।४)। (सम्) संसमियुवसे वृषन् (ऋ० १० ।१९१।१)। (उप) उपोप मे परामृश (ऋ० १।१२६ १७) । (उत्) किं नोदुदु हर्षसे दातवा उ (ऋ० ४।२१।९)। आर्यभाषा: अर्थ-(पादपूरणे) वेदमन्त्र के पाद-चरण की पूर्ति करमे में (प्रसमुपोदाम्) प्र, सम्, उप, उत् शब्दों को (ढ) द्विर्वचन होता है। उदा०-(प्र) प्रप्रायमग्निर्भरतस्य शृण्वे (ऋ० ७।८।४) इत्यादि पादपूर्ति विषयक सब वैदिक उदाहरण संस्कृत-भाग में देखें। सिद्धि-प्रप्रायमग्निर्भरतस्य शृण्वे' यह ऋग्वेद के मन्त्र का त्रिष्टुप् छन्द का प्रथम चरण है। त्रिष्टुप् छन्द के प्रत्येक चरण में ११ ग्यारह वर्ण होते हैं। यहां पादपूर्ति अर्थात् चरण के वर्गों को पूरा करने के लिये 'प्र' शब्द को द्विवचन किया गया है। सम्पूर्ण ऋचा यह है प्रायमग्निर्भरतस्य शृण्वे वि यत् सूर्यो न रोचते बृहद् भा: । अभि य: पुरुं पृतनासु तस्थौ द्युतानो दैव्योऽअतिथि: शुशोच ।। (ऋ० ७।८।४) इसके सहाय से अन्य उदाहरणों का अभिप्राय भी समझ लेवें। द्विवचनम् (७) उपर्यध्यधसः सामीप्ये।७। प०वि०-उपरि-अधि-अधस: ६।१ सामीप्ये ७।१। स०-उपरिश्च अधिश्च अधश्च एतेषां समाहार:-उपर्यध्यधः, तस्य-उपर्यध्यधस: (समाहारद्वन्द्व:)। तद्धितवृत्ति:-समीपस्य भाव इति सामीप्यम्, तस्मिन्- सामीप्ये। 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' (५ ।१।१२४) इति ब्राह्मणादित्वात् ष्यञ् प्रत्ययः । अनु०-द्वे इत्यनुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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