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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् वीप्सा धर्म किन शब्दों में रहता है ? सुबन्त शब्दों में वीप्सा धर्म रहता है। शब्द के प्रयोक्ता की व्याप्तिविशेष विषयक जो इच्छा है वह 'वीप्सा' कहाती है। नाना अर्थवाले द्रव्यों का क्रिया और गुण के द्वारा प्रयोक्ता की एक साथ जो व्याप्त करने की इच्छा है, उसे 'वीप्सा' कहते हैं। द्विवचनम्
(५) परेर्वर्जने।५। प०वि०-परे: ६।१ वर्जने ७।१ । अनु०-द्वे इत्यनुवर्तते। अन्वय:-वर्जने परेझै। अर्थ:-वर्जनेऽर्थे वर्तमानस्य परिशब्दस्य द्वे भवत: ।
उदा०-परि परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देव: । परि परि सौवीरेभ्यो वृष्टो देवः। परि परि सर्वसेनेभ्यो वृष्टो देव: । वर्जनम्=परिहारः।
आर्यभाषा: अर्थ-(वर्जने) परिहार अर्थ में विद्यमान (परे:) परि शब्द को (a) द्विवचन होता है।
'उदा०-परि परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । त्रिगर्त (कांगड़ा) देश को छोड़कर बादल बरसा। परि परि सौवीरेभ्यो वृष्टो देव: । सौवीर (रोड़ी) देश को छोड़कर बादल बरसा। परि परि सर्वसेनेभ्यो वृष्टो देवः । सर्वसेन (मरुस्थल) देश को छोड़कर बादल बरसा।
सिद्धि-परि परि त्रिगर्तेभ्यः । यहां वर्जन अर्थ में 'परि' शब्द को इस सूत्र से द्विवचन होता है। पूर्ववत् परवर्ती 'परि' शब्द की आमेडित संज्ञा होकर इसे अनुदात्त स्वर होता है। 'अपपरी वर्जने' (१।४।८७) से परि' शब्द की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होकर 'पञ्चम्यपाङ्परिभिः' (२।३।१०) से त्रिगर्तेभ्यः' पद में पञ्चमी विभक्ति होती है। यहां नित्यवीप्सयोः' (८।१।४) से वीप्सा अर्थ में द्विवचन प्राप्त था, अत: इस सूत्र से वर्जन अर्थ में द्विवर्चन का कथन किया गया है। द्विर्वचनम्
(६) प्रसमुपोदः पादपूरणे।६। प०वि०-प्र-सम्-उप-उद: ६।१ पादपूरणे ७।१।
स०-प्रश्च सम् च उपश्च उत् च एतेषां समाहार: प्रसमुपोत्, तस्य-प्रसमुपोदः (समाहारद्वन्द्वः)। पादस्य पूरणमिति पादपूरणम्, तस्मिन्-पादपूरणे (षष्ठीतत्पुरुषः) ।
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